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________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास १७ से परे अर्थात् जानने में न आने वाला है। इसी समन्वयवादी विचारधाग का उल्लेख ईशोपनिषद् में भी प्राप्त होता है। वहाँ विचारकों ने कहा है कि 'वह (परमात्म तत्त्व) चलता है; वह नहीं चलता; वह दूर भी है; वह अत्यन्त समीप है; वह इस समस्त जगत् के भीतर परिपूर्ण है; (और) वह इस समस्त जगत् के बाहर भी है।"२ गीता में भी यही कहा गया है कि "वह चर और अचर भूतों के बाहर और भीतर है, सूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय है, दूर भी है और निकट भी है।" इस जीवात्मा के हृदय रूप गुफा में रहने वाला परमात्मा सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म (और) महान् से भी महान है।"४ "जब अज्ञानमय अन्धकार का सर्वथा अभाव हो जाता है; उस समय (अनुभव में आने वाला तत्त्व) न दिन है, न रात है, न सत् है, न असत् है; एकमात्र विशद्ध कल्याणमय शिव हो है; वह सर्वथा अविनाशी है; वह सूर्याभिमानी देवता का भी उपास्य है; तथा उसी से (यह पुराना ज्ञान फैला है।" इस प्रकार उपनिषद्कालीन सुधारवादी विचारक विश्व के मूलतत्त्व के उक्त स्वरूप का विवेचन करके तत्कालीन विचारकों में मतैक्यता लाने का प्रयास कर रहे थे। वे जगह-जगह पर समझौता करने के लिए १. "आविः संनिहितं गुहाचरं नाम महत्पदमत्रतत्समर्पितम् । एजत्प्राणन्निमिषच्च यदेतज्जानथ सदसद्वरेण्यं परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठ प्रजानाम् ॥" -मुण्डकोपनिषद्-२:२:१ । २. "तदेजति तन्नैजति तदूरे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥" -ईशावास्योपनिषद्-५ । ३. "बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥" -श्रीमद्भगवद्गीता-१३:१६ । ४. "अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोनिहितो गुहायाम् ।" -कठोपनिषद्-२:२० । ५. “यदाऽतमस्तन्न दिवा न रात्रिर्नसन्न चासञ्छ्वि एव केवलः । तदक्षरं तत्सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ॥" -श्वेताश्वतरोपनिषद्-४:१८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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