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________________ १६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या मात्र सत् है और न तो मात्र असत् । अपितु वह सत् और असत् दोनों ही है। जब वह अव्यक्त अवस्था में रहता है तब मनीषीगण उसे असत् ऐसा कहते हैं, किन्तु जब वह अपने को इस जगत् के रूप में उड़ेलता है तब उसे सत् ऐसा कहते हैं अर्थात् उसकी अव्यक्तावस्था का नाम असत् और व्यक्तावस्था का नाम सत् है । उसके इस स्वरूप का विवेचन ऋग्वेद में भी किया गया है । वहाँ कहा गया है कि "देवताओं से भी पूर्व समय में असत् (अव्यक्त ब्रह्म) से सत् ( व्यक्त संसार) की उत्पत्ति हुई है ।"" अतः केवल सत् या केवल असदुप मूलतत्त्व की कल्पना व्यर्थ है । दोनों एक ही तत्व के दो नाम हैं । पुनः ऋग्वेद में ही उल्लिखित है कि "सत् तो एक ही है मनीषीगण उसका अनेक प्रकार से कथन करते हैं ।"२ भगवद्गीता में भी उसके ठीक इसी स्वरूप का विवेचन किया गया है - " अनादिमान परमात्मतत्त्व ब्रह्म न तो केवल स है और न केवल असत् है बल्कि दोनों ही है ।"‍ तत्कालीन समन्वयवादी विचारकों ने किसी भी मन्तव्य का न तो पूर्णतः समर्थन किया और न तो पूर्णतः निषेध; बल्कि सभी मन्तव्यों को आंशिक सत्य के रूप में स्वीकार कर उन्हें एक ही परमात्मतत्त्व में घटाया ! उसे उन्होंने सत् भी कहा और असत् भी, एक भी और अनेक भी । परन्तु इसके बाद भी उसे एकमात्र कल्याणमय शिव, अविनाशी, अतिसूक्ष्म एवं अविज्ञेय तथा समस्त जगत् का आधार बताया | मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि " (जो) प्रकाश स्वरूप अत्यन्त समीपस्थ (हृदयरूप गुहा में स्थित होने के कारण ) गुहाचर नाम से प्रसिद्ध (और) महान पद (परमप्राप्य) हैं; जितने भी चेष्टा करने वाले; श्वास लेने वाले और आँखों को खोलने - मंदने वाले ( प्राणी हैं) ये (सब-के-सब ) इसी में समर्पित ( प्रतिष्ठित ) हैं; इस परमेश्वर को तुम लोग जानो जो सत् (और) असत् है; सबके द्वारा वरण करने योग्य (और) अतिशय श्रेष्ठ (तथा) समस्त प्राणियों की बुद्धि १. “देवानां पूर्व्येयुगेऽसतः सदजायत ।” - ऋग्वेद १०:७२:२ । २. " एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।” Jain Education International — ऋग्वेद १:१६४:४६ ॥ ३. "अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।” — श्रीमद्भगवद्गीता - १३:१२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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