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________________ शिक्षा-दर्शन : एक सामान्य परिचय में कोई अन्तर नहीं था। जीवनयापन के साथ-साथ शिक्षा की प्रक्रिया भी चलती रहती थी। जब भी जिस प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता होती थी, समाज के लोग बालकों को उसी प्रकार की शिक्षा देते थे। शिक्षा देने के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं थी। तत्कालीन समाज और परिवार स्वयं में एक सर्वोत्तम पाठशाला था जिसमें माता-पिता सच्चे शिक्षक का काम करते थे। प्राचीनकाल में पिता के द्वारा ही बालक पेशे की जानकारी कर लेता था और अभ्यास करते-करते उस कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता था, किन्तु आज औद्योगिक शिक्षा के लिए बड़े-बड़े विद्यालय खोले गये हैं। आज विद्यालय में जो बालकों को सिखाया जाता है, वह कभी-कभी उसके जीवन में काम नहीं आता, अनुपयोगी हो जाता है। अत: स्पष्ट है कि प्राचीनकाल में जीवन और शिक्षा में कोई अन्तर नहीं था, लेकिन आज अन्तर आ गया है। फिर भी अगर शिक्षा और जीवन पर सूक्ष्मता से विचार किया जाय तो दोनों में कोई अन्तर नहीं है। दोनों एक-दूसरे से अभिन्न हैं। शिक्षा के अभाव में मानव पश् के समान है और जीवन के अभाव में शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जीवन को आनन्दमय बनाने के लिए शिक्षण-प्रक्रिया भी आनन्दमयी होनी चाहिए, क्योंकि हम जीवनयापन करते हैं, उसे भारस्वरूप ढोते नहीं हैं। यदि जीवन भारस्वरूप होता तो हम उससे जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहते। इसी तरह शिक्षण को भी आनन्ददायक होना चाहिए, नहीं तो उससे भी मुक्ति पाना चाहेंगे। विनोबा भावे ने इसी भाव की ओर संकेत करते हुए कहा है _ 'वस्तुत: छात्र की जैसे ही यह धारणा हुई कि मैं शिक्षा ग्रहण कर रहा हूँ, तो समझ लीजिए कि शिक्षा का सारा मजा किरकिरा हो गया। छोटे बच्चों के लिए खेलना उत्तम कहा जाता ही है, इसका भी रहस्य यही है। खेलने में व्यायाम तो हो जाता है, पर हम व्यायाम कर रहे हैं, ऐसा अनुभव नहीं होता। खेलते समय आसपास की दुनियाँ मर गयी होती है। बच्चे तद्रूप होकर अद्वैत का अनुभव करते रहते हैं। देह की सुध-बुध नहीं रह जाती। भूख, प्यास, थकान, पीड़ा आदि कुछ भी नहीं मालूम पड़ती। अर्थात् खेल का अर्थ आनन्द या मनोरंजन रहता है। यह व्यायाम रूप कर्तव्य नहीं बन पाता। यही बात सभी प्रकार की शिक्षाओं पर लागू करनी चाहिए। शिक्षा एक कर्तव्य है, ऐसी कृत्रिम भावना की अपेक्षा शिक्षा का अर्थ आनन्द है, यह प्राकृत और उत्साह भरी भावना पैदा होनी चाहिए।' २६ दर्शन का अर्थ मानव एक चिन्तनशील प्राणी है। जब वह विचार करना प्रारम्भ करता है तब दर्शन का प्रारम्भ होता है। व्यक्ति जिस वातावरण में रहता है उसे वह जानने का प्रयत्न करता है। व्यक्ति के मन में यह जिज्ञासा होती है कि वह गतिशील जगत के लक्ष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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