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________________ १४२ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन को राजपिण्ड कहते हैं। आहार, अनाहार और उपाधि के भेद से राजपिण्ड तीन प्रकार के हैं और इन तीनों को ग्रहण न करना राजपिण्ड का त्याग है। इनके ग्रहण करने से अनेक दोष आते हैं, जैसे- राजभवन में मन्त्री, श्रेष्ठी, कार्यवाहक आदि बराबर आते-जाते रहते हैं, अत: भिक्षा के लिए राजभवन में प्रविष्ट भिक्षु को उनके आने-जाने से रुकावट हो सकती है, उनके कारण साधु को रुकना पड़ सकता है। हाथी, घोड़ों के जाने-आने से भूमि शोधकर नहीं चला जा सकता। नंगे साधु को देखकर और उसे अमंगल मानकर कोई बुरा व्यवहार कर सकता है, कोई उसे चोर भी समझ सकता है। कामवेदना से पीड़ित स्त्रियाँ बलात् साधु को उपभोग के लिए रोक सकती हैं। राजा से प्राप्त सुस्वादु भोजन के लोभ से साधु अनेषणीय भोजन भी ग्रहण कर सकता है। इस प्रकार राजपिण्ड ग्रहण करने पर अनेक दोष आ सकते हैं, किन्तु जहाँ इस प्रकार के दोषों की सम्भावना न हो और अन्यत्र भोजन सम्भव न हो तो राजपिण्ड भी ग्राह्य हो सकता है।३७ कृतिकर्म- छह आवश्यकों के पालक गुरुजनों का विनय करना कृतिकर्म है।३८ चारित्र में स्थित साधु के द्वारा भी महान गुरुओं के प्रति विनय, सेवा करना कृतिकर्म है। व्रतारोपण- जो धर्म की रक्षा करने में समर्थ हो, जो अचेल हो, अपने उद्देश्य से बनाये गये भोजनादि का तथा राजपिण्ड का त्यागी, गुरुभक्त और विनीत हो, उसी को नियमपूर्वक व्रत देना चाहिए, वही व्रतारोपण के योग्य है।३९ ज्येष्ठता- चिरकाल से दीक्षित और पाँच महाव्रतों की धारिणी साध्वी से एक दिन के भी दीक्षित साधु ज्येष्ठ होते हैं, अत: उनके प्रति विनित भाव रखना चाहिए। प्रतिक्रमण- अचेलता आदि कल्प में स्थित साधु को यदि अतिचार लगता है तो उसका शोधन करना प्रतिक्रमण है।४० मास- छः ऋतुओं में एक-एक मास ही एक स्थान पर रहना और अन्य समय में विहार करना मास स्थितिकल्प है।४१ पर्युषण- वर्षाकाल में भ्रमण त्यागकर चार मास एक ही स्थान पर रहना, क्योंकि उस समय असंयम का डर रहता है। इसके साथ ही वर्षा तथा शीत से आत्मा की विराधना होती है। पानी में छिपे ढूँढ़, काँटे, कीचड़ आदि से भी विराधना होती है।४२ पं० आशाधरजी ने इस कल्प का नामकरण वार्षिक योग किया है।४३ बारह तप जैन परम्परा में “तप' को धर्म का प्राणतत्त्व माना गया है। जिस साधना के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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