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________________ शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व १४१ दस स्थितिकल्प के धारक ही आचार्य हों यह आवश्यक नहीं है क्योंकि दस स्थितिकल्प में से चार स्थित होते हैं और छ अस्थित। शय्यातरपिण्ड का त्याग, व्रत, ज्येष्ठता और कृतिकर्म चार स्थित हैं, शेष अस्थित। ऋषभ और महावीर को छोड़कर मध्य के बाईस तीर्थंकरों के काल में साधु तथा विदेह के साधु छः अस्थित का पालन करते भी थे और नहीं भी करते थे। श्वेताम्बर परम्परा में दस स्थितिकल्प का पालन प्रत्येक साधु के लिये करणीय है। इसका सम्बन्ध आचार्य के आचार्यत्व से नहीं है। ___आचेलक्य- चेल का अर्थ होता है- वस्त्र। वस्त्रादि परिग्रह का अभाव या नग्नता का नाम आचेलक्य है। प्रत्येक साधु को नग्न रहना चाहिए। (यह दिगम्बर मान्यता है।) 'भगवती आराधना' की अपनी संस्कृत टीका में अपराजितसूरि ने इसका समर्थन किया है, परन्तु श्वेताम्बर शास्त्रों में उनकी मान्यता के प्रति विरोध प्रकट किया गया है, क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा के भाष्यकारों और टीकाकारों ने अचेल का अर्थ अल्प चेल या अल्पमूल्य का चेल से किया है। श्वेताम्बर परम्परा में साधु के लिये नग्नता का निषेध है। औद्देशिक का त्याग- श्रमणों के उद्देश्य से बनाये गये भोजन आदि को ग्रहण न करना, क्योंकि ओघ रूप से या विभाग रूप से श्रमणों और श्रमणियों के कुल, गण और संघ के संकल्प से जो भोजन आदि बनाया जाता है वह ग्राह्य नहीं होता है।३५ शय्यातरपिण्ड का त्याग- जिसने वसतिका बनवायी है, जो वसतिका की सफाई आदि करता है तथा जो वहाँ का व्यवस्थापक है उसके भोजन आदि को ग्रहण न करना तीसरा स्थितिकल्प है। कारण कि उसका भोजन आदि ग्रहण करने पर वह धर्मफल के लोभ से छिपाकर भी आहार आदि की व्यवस्था कर सकता है और जो आहार देने में असमर्थ है, दरिद्र या लोभी है, वह इसलिए रहने को स्थान नहीं देगा कि स्थान देने से भोजनादि भी देना होगा। वह सोचेगा कि अपने स्थान पर ठहराकर भी यदि मैं आहारादि नहीं दूंगा तो लोग मेरी निन्दा करेंगे कि इसके घर में मुनि ठहरे हैं और इस अभागे ने उन्हें आहार नहीं दिया। दूसरे, मुनि का उस पर विशेष स्नेह हो सकता है कि यह हमें वसति के साथ भोजन भी देता है। किन्तु उसका भोजन ग्रहण न करने पर उक्त दोष नहीं होता। अन्य कुछ ग्रन्थकार ‘शय्यागृहपिण्ड का त्याग' ऐसा पाठ रखकर उसकी यह व्याख्या करते हैं कि मार्ग में जाते हुए जिस घर में रात को सोये उसी घर में दूसरे दिन भोजन नहीं करना अथवा वसतिका के निमित्त से प्राप्त होनेवाले द्रव्य से बना भोजन ग्रहण नहीं करना।३६ राजपिण्ड का त्याग- राजा जिसका जन्म इक्ष्वाकु आदि कुल में हुआ है अथवा जो प्रजा को प्रिय शासन देता है या राजा के समान ऐश्वर्यशाली है उसके भोजनादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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