SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्य देव मूतियां स्थानक मूर्ति निर्वस्त्र है जबकि मंदिर सं० ४ की मूर्ति में क्षेत्रपाल ललितमुद्रा में पीठिका पर आसीन हैं । खजुराहो के आदिनाथ मन्दिर की मूर्ति विवरण की दृष्टि से देवगढ़ की उपर्युक्त मूर्तियों के समान है। किन्तु खजुराहो की अन्य अष्टभुजी क्षेत्रपाल मूर्तियाँ किसी स्वतन्त्र क्षेत्रीय परम्परा से निर्दिष्ट प्रतीत होती हैं । अष्ट-विक्पाल दिशाओं के स्वामी के रूप में दिक्पालों या लोकपालों की कल्पना अत्यन्त प्राचीन है । ब्राह्मण धर्म के साथ ही जैन धर्म और कला में भी इन्हें ल० आठवीं-नवीं शती ई० में मान्यता मिली। जैन ग्रन्थों में वर्णित दिक्पालों के नाम और लक्षण पूरी तरह ब्राह्मण परम्परा से प्रभावित हैं । ल० आठवीं शती में जैन मंदिरों पर इन दिक्पालों का अंकन प्रारम्भ हुआ । ओसिया के महावीर मंदिर पर अष्ट-दिक्पालों का प्रारम्भिकतम (८वों-९वीं शतीई० ) अंकन हुआ है। ब्राह्मण धर्म में सामान्यतः आठ और कभी-कभी दस दिक्पालों का उल्लेख हुआ है किन्तु जैन ग्रन्थों में सर्वदा दस दिक्पालों के ही नाम वणित हैं। निर्वाणकलिका, मन्त्राधिराजकल्प ( ल० १२वीं-१३वीं शती ई०), आचारदिनकर (१४११ ई०), प्रतिष्ठासारसंग्रह, प्रतिष्ठासारोद्धार एवं प्रतिष्ठातिलकम् में पूर्व दिशा के स्वामी के रूप में इन्द्र, दक्षिण-पूर्व के अग्नि, दक्षिण के यम, दक्षिण-पश्चिम के निऋति ( या नैऋत ), पश्चिम के वरुण, उत्तर-पश्चिम के वायु, उत्तर के कुबेर, उत्तर-पूर्व के ईशान्, आकाश के ब्रह्मा ( या सोम ) और पाताल के धरणेन्द्र ( या नागदेव ) के उल्लेख हैं। इन ग्रन्थों में इनकी लाक्षणिक विशेषतायें भी विस्तार से वणित हैं ।' यद्यपि जैन ग्रन्थों में सर्वदा दस दिक्पालों का ही निरूपण हुआ है, किन्तु जैन मन्दिरों पर अष्टदिक्पालों का अंकन ही लोकप्रिय था। दस दिक्पालों के अंकन का एकमात्र ज्ञात उदाहरण घणेराव (पाली, राजस्थान ) के महावीर मन्दिर ( १०वीं शती ई० ) पर है। इस मन्दिर में ब्रह्मा और धरणेन्द्र की आकृतियाँ गूढ़मण्डप के प्रवेशद्वार पर बनी हैं ।२ विमल वसही में अष्ट-दिक्पालों के पाँच समूह हैं। खजुराहो के पार्श्वनाथ एवं आदिनाथ जैन मन्दिरों में अष्ट-दिक्पालों के तीन समूह आकारित हैं। इनमें दिक्पालों की चतुर्भुज आकृतियाँ पारम्परिक वाहनों के साथ त्रिभंग में खड़ी हैं । जैन मन्दिरों की दिक्पाल मूर्तियाँ खजुराहो के ब्राह्मण मन्दिरों की दिक्पाल मूर्तियों से पूरा साम्य रखती हैं । यहाँ इन मूर्तियों का स्वतन्त्र वर्णन भी अपेक्षित है। ___ इन्द्र-करण्डमुकुट से शोभित इन्द्र का वाहन गज है और उनके हाथों में पद्म, अंकुश, १. शाह, यू० पी०, “सम माइनर जैन डीटीज-मातृकाज ऐण्ड दिक्पालज," जनल एम. एस० यूनिवसिटी आव बड़ौदा, खण्ड ३०, अंक १, १९८१, पृ० ८४-१०० ।। २. तिवारी, मारुति नन्दन प्रसाद एवं गिरि, कमल, "अष्टदिक्पालज ऐट विमल वसही", जंन जर्नल ( कलकत्ता ), खण्ड १७, अंक ३, जनवरी १९८३, पृ० १०३-०८। ३. पार्श्वनाथ मन्दिर के मण्डप तथा गर्भगृह की भित्तियों पर अष्टदिक्पालों के दो समूह आकारित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002076
Book TitleKhajuraho ka Jain Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherSahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
Publication Year1987
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Art, & Statue
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy