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________________ ७६ खजुराहो का जैन पुरातत्व ल० ११वीं शती ई० में जन स्थलों पर क्षेत्रपाल का मूर्त अंकन प्रारम्भ हुआ । खजुराहो में क्षेत्रपाल की कुल ४ मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियाँ ११वीं शती ई० की हैं। एक मूर्ति आदिनाथ मंदिर (११वीं शती ई०) के दक्षिणी अधिष्ठान पर है और अन्य तीन उदाहरणों में एक शान्तिनाथ मंदिर (१/१) में है तथा दो सा० शां जै० क० संग्रहालय (क्र० २३७) में हैं। आदिनाथ मंदिर के उदाहरण में ललितासीन क्षेत्रपाल चतुर्भज हैं जब कि अन्य उदाहरणों में अष्टभुज क्षेत्रपाल खड़े दिखाये गये हैं । सा० शां० ज० क० सं० की एक मूर्ति में क्षेत्रपाल दस हाथों और सौम्य दर्शन वाले हैं। आदिनाथ मंदिर की मूर्ति में क्षेत्रपाल के हाथों में गदा, नकुलक, सर्प और फल प्रदर्शित हैं । वाहन के रूप में श्वान आकारित है जिसे क्षेत्रपाल की ओर देखते हुए बनाया गया है । अन्य उदाहरणों में वाहन के रूप में श्वान् के स्थान पर सिंह का अंकन हुआ है तथा ऊर्ध्व केश क्षेत्रपाल की आकृतियाँ विकराल न होकर सौम्य दर्शन वाली हैं। शांतिनाथ मंदिर के उदाहरण में "चन्दकाम' नाम वाले क्षेत्रपाल की आकृति नृत्य की मुद्रा में उकेरी है । आठ हाथों में से अधिकांश खंडित हैं, किन्तु एक हाथ में खेटक है तथा कुछ हाथों से नृत्य की मुद्रा व्यक्त है । शिव की नटराज मूर्तियों के समान ही यहाँ भी वामपाश्र्व में एक नगाड़ा वादक की आकृति बनी है। विभिन्न आभूषणों से अलंकृत इस मूर्ति में नृत्य की गतिशीलता के कारण दुपट्टे को सुन्दर ढंग से लहराते हुए दिखाया गया है। शीर्षभाग में ध्यानस्थ तीर्थंकरों की दो मूर्तियाँ भी बनी हैं। सिंह वाहन की आकृति यहाँ अत्यन्त उग्ररूप में उत्कीर्ण है। सा० शां० ज० क० सं० की मूर्तियों में क्षेत्रपाल त्रिमंग में सप्तरथ पीठिका पर खड़े हैं। उनके एक अवशिष्ट पाणि में गदा और दूसरे में शृंखला ( या तर्जनीमुद्रा ) हैं । शीर्षमाग में ध्यानस्थ तीर्थंकरों की ३ लघु मूर्तियाँ, दो उ.डीयमान मालाधर और पावों में सेवक-सेविकाओं की आकृतियाँ बनी हैं। सिंहवाहन के गले में बँधी शृंखला का ऊपरी सिरा क्षेत्रपाल के हाथ में था, जो वर्तमान में टूटा है । क्षेत्रपाल यहाँ वनमाला, धोती, हार, कुण्डल आदि से शोभित हैं। __ खजुराहो की उपर्युक्त क्षेत्रपाल मूर्तियां दो वर्गों में बाँटी जा सकती हैं, जिनमें से एक में वाहन के रूप में श्वान और दूसरे में सिंह का अंकन हुआ है। क्षेत्रपाल का नृत्यरत रूप में अंकन और साथ ही उसका नामोल्लेख क्षेत्रीय परम्परा के अध्ययन की दृष्टि से विशेष महत्व का है । एक ओर श्वेताम्बर ग्रन्थों में क्षेत्रपाल के निर्वस्त्र निरूपण का निर्देश और दूसरी ओर खजुराहो की दिगम्बर परम्परा की मूर्तियों में उनका वस्त्र सज्जित होना विशेष महत्त्वपूर्ण है। तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से यहाँ देवगढ़ के मन्दिर सं० १ और ४ के स्तम्भों की १२वीं शती ई० की क्षेत्रपाल मूर्तियों का उल्लेख भी प्रासंगिक होगा । दोनों उदाहरणों में शृंखला से बंधा श्वान् प्रदर्शित है । शृंखला का ऊपरी छोर क्षेत्रपाल के एक हाथ में है । देवगढ़ के मन्दिर सं० ४ की मूर्ति में अन्य तीन हाथों में गदा, दण्ड और जलपात्र तथा मन्दिर सं० १ की मूर्ति में गदा, सर्प और डमरू दिखाये गये हैं। मंदिर सं० १ की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002076
Book TitleKhajuraho ka Jain Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherSahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
Publication Year1987
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Art, & Statue
File Size10 MB
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