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________________ पएसी तेसि तिण्हं आयरियाणं कस्स का विणय पडिबत्ती पउंजियव्वा ? हंता जारगामि कलायरियस्स, सिप्पायरियस्य उवलेवरणं वा समज्जरणं करेज्जा, पुप्फारिण वा पाणावेज्जा, मंडावेज्जा वा भोयवेज्जा वा विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलाएज्जा, पुत्ताणं पुत्तियं वावि विकप्पेज्जा । जत्थेव धम्मायारियं पासेज्जा तत्थेव वंदिज्जा, रणमसेज्जा, सक्कारेज्जा, सम्मारगेज्जा, कल्लारणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जवासेज्जा, फासुएसरिगज्जेण असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेज्जा, पाडिहारिएणं पीठफलगसेज्जा संथारगेणं उनिमंतिज्जा।' अर्थात् - केशि कुमार श्रमण के प्रश्न के उत्तर में राजा प्रदेशी ने कहा कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य ये ३ प्रकार के प्राचार्य होते हैं। उनमें से कलाचार्य तथा शिल्पाचार्य ऋतुओं के अनुकूल उबटन, मज्जन, पुष्प, वस्त्राभूषणादि, भोजन और उनके जीवनयापन योग्य प्रीतिदान से सम्मानार्ह होते हैं। उनके पुत्र पुत्रियों को भी इसी प्रकार सम्मानित किया जाना चाहिए । इन दोनों प्रकार के प्राचार्यों की तुलना में धर्माचार्य अत्यधिक सम्मानार्ह होते हैं । जहां कहीं धर्माचार्य के दर्शन हो जायं वहीं उनको भक्ति भाव से वंदन-नमस्कार करना चाहिए, उनका हार्दिक सत्कार कर उनके प्रति सम्मान प्रकट करना चाहिए। हे भगवन् ! आप महान् कल्याणकारी, सर्व मंगल स्वरूप-मंगल-प्रदायी और पूजनीय हैं - इस प्रकार के भक्ति प्ररणं प्रान्तरिक उद्गारों के साथ मधुर शब्दों से उनकी उपासना के पश्चात् उन्हें निर्दोष सात्विक प्रशनपानादि का दान देकर तस्ता (पीठ फलक) संस्तारक मादि आवश्यक वस्तुओं को ग्रहण करने के लिये निवेदन करना चाहिए। सार रूप में 'आचार्य' शब्द के अर्थ का प्रतिपादन निम्नलिखित श्लोक में इस प्रकार किया गया है : आचिनोति च शास्शार्थमाचारे स्थापयत्यपि । स्वयमाचरते यस्मादाचार्यस्तेन कथ्यते ।। अर्थात् – जो श्रमणाग्रणी सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रों के अर्थ का प्राचयन - मननपूर्वक संचयन अथवा संग्रहण करते हैं, स्वयं विशुद्ध-निरतिचार प्राचार का सम्यक रूपेण परिपालन करते हैं एवं अपने शिष्य-शिष्याओं तथा भव्य भक्तों को प्राचार में स्थापित करते हैं, इसी लिये उनको प्राचार्य कहा जाता है। महानिशीथ, (अध्ययन ३) में प्राचार्य का लक्षण इस प्रकार वताया गया है : "अठ्ठारस सीलंग-सहसाहिठियं तणू छत्तीसइविहिमायारं जह-ठ्ठियमगिलाए महति सारणुसमयं आयरंतित्ति वत्तयंतित्ति पायरिया परमप्पणो य हियमायरंति पायरिया सव्वसत्तसीसगणारणं च हियमायरंति पायरिया। पारणपरिच्चाए विउ ' राजप्रश्नीय सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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