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________________ है :- "माङ् मर्यादाभिविध्योः चरिर्गत्यर्थे, मर्यादया चरन्तीत्याचार्या:" प्राचारेण वा चरन्तीत्याचार्याः ।" प्रावश्यक मलय वृत्ति में भी 'प्राचार्य' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार उल्लिखित है: "चर गति - भक्षणयोः प्राङ् पूर्व प्राचर्यते कार्याथिभिः सेव्यते इत्याचार्यः, ऋवर्ण व्यंजनाणिति ।'' भगवती राव की वृत्ति में 'प्राचार्य' शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए इस पद की गरिमा पर निम्नलिखित रूप में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है : ___ "पा मर्यादया तद्विपयविनयरूपया चर्य्यन्ते सेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशत या तदाकांक्षिभिरित्याचार्याः । उक्त च - सुत्तत्थविऊलक्खरण -, जुत्तो गच्छस्स मेढिभूमो य।। गरणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं वाएइ पायरियो ।।त्ति।। अथवा प्राचारो ज्ञानाचारादि: पञ्चधा। प्रा मर्यादया वाचारो विहार, प्राचारस्तत्र साधवः स्वयं करणात्प्रभापरणाप्रदर्शनाच्चेत्याचार्या: । ग्राह च-- अथवा मा ईषदपरिपूर्ण इत्यर्थश्चाराहैरिका ये ते प्राचाराश्चारकल्पा इत्यर्थः. युक्तायुक्तविभागनिरूपणनिपुरणा विनेया अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतयेत्याचार्याः।"३ सारांश यह है कि जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित प्रागमज्ञान को हृदयंगम कर उसे प्रात्मसात् करने को उत्कण्ठा वाले शिष्यों द्वारा जो विनयादिपूर्ण मर्यादापूर्वक सेवित हों, उनको प्राचार्य कहते हैं। कहा भी है - जो सूत्र और मर्थ-उभय के ज्ञाता हों, उत्कृष्ट कोटि के लक्षणों से युक्त हों, संघ के लिये मेढि प्रर्थात् प्राधार स्तम्भ के समान हों, जो अपने गण-गच्छ अथवा संघ को समस्त प्रकार के संतापों से पूर्णतः विमुक्त रखने में सक्षम हों तथा जो अपने शिष्यों को प्रागमों की गूढार्थ सहित वाचना देते हों, उन्हें प्राचार्य कहते हैं। जो (ग्राचार्य) पांच प्रकार के प्राचार अर्थात् ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप प्राचार एवं वीर्याचार का स्वयं सम्यग् रूपेण पालन, प्रकाशन प्रसारण तथा उपदेश करते हैं और अपने अन्तेवासियों से भी उसी प्रकार का पाचरण करवाते हैं, उन्हे प्राचार्य कहा जाता है । राज प्रश्नीय सूत्र में प्राचार्य के तीन भेद बनाने के पश्चात् किस प्रकार के प्राचार्य के प्रति किस तरह का विनय व्वयहारादि प्रशित करते हुए कर्त्तव्यपालन करना चाहिए-इसका निम्नलिखित शब्दों में सुन्दर उल्लेख किया है : - "केसीकुमार समणे पदेसि रायं एवं वयासि - जाणासि णं तुम्हें पएसी केवइयारिया पण्णत्ता ? हता-जाणामि तमो पायरिया । जाणासि रणं तुम्हं 'प्रावश्यक मलयवत्ति, द्वितीय । २ भगवती सूत्र, १. १. १. मंगलाचरण (वृत्ति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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