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________________ मानना चाहिये । व्यवहार में ऊपर के दिन अल्प होने के कारण गरगना में उनका उल्लेख न कर मोटे तौर पर संवत्सर तप कह दिया गया है । कल्प किरणावली में स्पष्ट उल्लेख है कि शुद्धाहार न मिलने के कारण प्रभु की तपश्चर्या का एक वर्ष व्यतीत हो गया । फिर उस अंतराय कर्म के क्षयार्थ उन्मुख होने पर प्रभु ने सांवत्सरिक तप का पारण किया । वसुदेव हिंडी में भी इसी से मिलता जुलता उल्लेख किया गया है। इससे भी यही प्रकट होता है कि एक वर्ष व्यतीत हो जाने के उपरान्त भी कुछ समय तक शुद्धाहार नहीं मिला । दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ हरिवंश पुराण में ६ मास की अवधि के अनशन तप के साथ प्रभु के दीक्षित होने तथा ६ मास के तप की अवधि के समाप्त हो जाने के अनन्तर भी आहारदान की विधि से लोगों के अनभिज्ञ होने के कारण भिक्षाचरी के लिये भ्रमरण करने पर भी छः मास तक शुद्धाहार न मिलने एवं अन्ततोगत्वा श्रेयांश द्वारा इक्षुरस के दान और प्रभु के पारक का कल्प किरणावली से मिलता-जुलता उल्लेख किया गया है। प्रभु के उम प्रथम तप की अवधि एक वर्ष से कुछ अधिक रही इस प्रकार का स्पष्ट ग्राभास 'हरिवंश पुराण' के उल्लेख में प्रकट होता है । 3 इन उल्लेखों मे यह सिद्ध होता है कि प्रभु ऋषभदेव का प्रथम तप ? वर्ष से अधिक समय का रहा पर व्यवहार में ऊपर के दिनों को गोगा मान कर इसे वर्षी तप ही कहा गया है। जिस प्रकार प्रभु महावीर का केवलज्ञान काल ३० वर्ष माना जाता है परन्तु उनके ४२ वर्ष के संयमित जीवन में से १२ वर्ष और १३ पक्ष से कुछ समय छद्मस्थकाल का निकाल देने पर वस्तुतः उनके केवलज्ञान का काल २६ वर्ष र ६ मास से थोड़ा न्यून होता है । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में श्रेयांसकुमार द्वारा भगवान् आदिनाथ का प्रथम पारणा कराये जाने के काररण पारणक दिवस अक्षयतृतीया के रूप में पर्व माना जाता है । यद्यपि भगवान् ऋषभदेव के प्रथम पाररणक दिवस की तिथि का कहीं प्राचीन उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता परन्तु परम्परा से दोनों शुद्धाहारमलभमानस्य एक वर्ष जगाम । तदा च तस्मिन् कर्मणि क्षयाय उन्मुखे सति ततस्तेन भगवान् सांवत्सरिकतपः पाररणकं कृतवान् । [ कल्प किरणावली, पत्र १५४ ( ६ ) ] २ भयवं पियामहो निराहारो परमधिति-बल-सत्तसायरो सयंभुसागरो इव थिमिम्रो प्रणाउलो संवधरं विहरs, पत्तो य हत्विरणउरं । [बसुदेव हिंडी, प्रथमोंऽशः, पृ. १६४] षण्मासानशनस्यान्ते, प्रतस्थे पदविन्यासः, तथा यथागमं नाथः, षण्मासानविषण्णधीः । प्रजाभिः पूज्यमानः सन्, विजहार महि क्रमात् ।। १५६ ।। संहृतप्रतिमास्थितिः । क्षिति पल्लवयन्निव । । १४२ । । सम्प्राप्तोऽथ वृत्तवृद्ध यं विशुद्धात्मा, पारिणपात्रेण पारणम् । समपादस्थितश्चक्रे, दर्शयन् Jain Education International क्रियया विधिम् ।। १८६|| [ हरिवंश पुराण, सगं ६ ] ( १८ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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