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________________ प्राक्कथन पीठिका जैन धर्म का मौलिक' इतिहास, प्रथम भाग इतिहास-प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत किया जा चुका है। उसमें भगवान् ऋषभदेव से प्रभू महावीर तक चौवीसों तीर्थंकरों के जनक, जननी, च्यवन, जन्म, गृहस्थ जीवन, अभिनिष्क्रमण, दीक्षा छद्मस्थ-जीवन, कैवल्योपलब्धि, तीर्थप्रवर्तन, केवली-चर्या, गणधर, साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका एवं प्रभु द्वारा प्राणिमात्र के प्रति किये गये महान् उपकार एवं निर्वाण प्रादि का पावन परिचय प्रस्तुत किया जा चका है। उसे पढ़ कर संतसतियों, लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों, इतिहासप्रेमियों, श्रद्धालु पाठकों एवं समाज के प्रायः सभी वर्गों ने परम प्रमोद प्रकट किया है। शैलोक्यबन्धु तीथंकरों के भवतापहारी इतिवृत्त को पढ़कर सहस्रों श्रद्धालुओं ने आध्यात्मिक आनन्द का रसास्वादन किया। इससे हम संतोप का अनुभव करते हैं कि हमारा परिश्रम सफल एवं लक्ष्य सार्थक हुआ। हमें इस वात पर बड़ी प्रसन्नता हुई कि कतिपय अध्ययनशील महानुभावों ने इसे अति सूक्ष्म एवं शोधपूर्ण दृष्टि से पढ़कर अपनी शंकाएं एवं सुझाव भेजे हैं। इस प्रकार की शोधप्रिय रुचि वस्तुतः सराहनीय है। प्रथम भाग में जो विपुल सामग्री प्रस्तुत की गई है, उसमें से कुल मिलाकर केवल पांच प्रसंगों के संबंध में जिज्ञासुनों द्वारा जो शंकाएं उठाई गई हैं, वे शंकाएं तथा उनके समाधान निम्न प्रकार हैं : प्रथम भाग के पृष्ठ ६१-३२ पर भगवान् ऋषभदेव के प्रथम पारण का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा गया है - "भगवान् (ऋषभदेव) मे वैशाख शुक्ला तृतीया को वर्ष-तप का पारणा किया।" यहां यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि भगवान ऋषभदेव ने चैत्रकृष्णा अष्टमी को बेला-तप के साथ दीक्षा ग्रहण की और दूसरे वर्ष की वैशाख शुक्ला तृतीया को श्रेयांस कुमार के यहां प्रथम पारणा किया तो इस प्रकार चे.क. ६ से वै. शु. ३ तक उनकी यह तपस्या १३ मास और १० दिन की हो गई। ऐसी स्थिति में-'संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेरण' - इस गाथा के अनुसार प्राचार्यों ने प्रभु आदिनाथ के प्रथम तप को संवत्सर तप कहा है, वह कहां तक ठीक है? क्योंकि वह तप १२ मास का नहीं अपितु १३ मास और १० दिन का तप था। वस्तुतः यह कोई आज का नवीन प्रश्न नहीं। यह एक बहुचचित प्रश्न है। 'संवच्छरेरण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेण ।' यह एक व्यवहार वचन 'मूलतो भवं मौलिकम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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