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________________ दियदस-पण्णवायरण-विवायसुत्त-दिट्टिवादारणं-सामाइय-चवीसत्यय-वंदण-पडिकमरण-वइणइय-किदियम्म-दसवेयालि-उत्तरज्झयण-कप्पववहार-कप्पाकप्प-महाकप्प-पुंडरीय-महापुंडरीय, णिसिहियाणं, चोद्दसपइण्णयाणमंगवज्जाणं च सावण मास बहुलपक्ख जुगादिपडिवय पुष्वदिवसे जेग्ग रयणा कदा तेरिणदभूदि भडारो वद्धमारण-जिरणतित्थगंथकत्तारो।" धवलाकार प्राचार्य वीरसेन के समकालीन पुनाट संघीय प्राचार्य जिनसेन ने धवला से पूर्वरचित अपने ग्रन्थ हरिवंश पुराण में धवला की अपेक्षा और अधिक विस्तार के साथ बताया है कि भगवान् महावीर ने द्वादशांगी, पूर्वो तथा पूर्वी की चूलिकाओं के ज्ञान का उपदेश देने के पश्चात् सामायिक, चतुर्विशति स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प व्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक तथा जिसमें सभी प्रायश्चित्तों का विधान है उस निषद्यका (निपीथ) का उपदेश दिया। तदनन्तर प्रभु ने अपनी देशना में मति प्रादि पांचों ज्ञान के स्वरूप, विषय, फल, अपरोक्ष-परोक्षता, मार्गणा भेद, गुणस्थान विकल्पों, जीवस्थान के भेद-प्रभेदों सहित जीव द्रव्य का, सत्संख्यादि अनुयोगों आदि के द्वारा पुद्गलों एवं उनके उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यत्व, बन्ध, मोक्ष, लोक, अलोक आदि का विशद ज्ञान दिया। प्रभु के उस उपदेश के प्राधार पर गौतम गणधर ने ग्रंग प्रविष्ट द्वादशांगी एवं उपांगों की रचना की। अंगप्रविष्टतत्त्वार्थ, प्रतिपाद्य जिनेश्वरः । अंगबाह्यमवोचत्तत्प्रतिपाद्यार्थरूपतः ॥१०१।। सामायिकं यथार्थास्यं सचतुर्विंशतिस्तवम् । वन्दनां च ततः पूतां, प्रतिक्रमणमेव च ॥१०२।। वैनयिक विनेयेभ्यः कृतिकर्म ततोऽवदत् । दशवकालिकां पृथ्वीमुत्तराध्ययनं तथा ॥१०३।। तं कल्पव्यवहारं च कल्पाकल्पं तथा महाकल्पं च पुण्डरीकं च, सुमहापुण्डरीककम् ॥१०४॥ तथा निषधका प्राय: प्रायश्चित्तोपवर्णनम् । जगत्त्रयगुरुः प्राह पतिपाद्यं हिनोधतः ॥१०॥ मत्यादेः केवलान्तस्य, स्वरूपं विषयं फलम् । अपरोक्षपरोक्षस्य, ज्ञानस्योवाच संख्यया ॥१०६।। मार्गणास्थानभेदश्च, गुणस्थान विकल्पनः । जीवस्यानप्रभेदश्च, जीव-द्रव्यमुपादिशन् ॥१०७॥ सत्संख्याद्यनुयोगश्च, सन्नामादिकमादिभिः। द्रव्यं स्वलक्षणभिन्नं, पुगनादिविलक्षणम् ॥१०॥ द्विविधं कर्मबन्धं च, सहेतुं - सुख दुःखदम् । मोक्षं मोक्षस्य हेतुं च, फल चाष्टगुणात्मकम् ।।१०।। बन्ध-मोक्षफलं यत्र, भुज्यते तत्रिधाकृतम् । अन्तः स्थितं जगी लोकमलोकं च बहिस्थितम् ॥११॥ अथ सप्तद्धिसम्पनः श्रुत्वार्थ जिनभाषितम् । द्वादशांग श्रुतस्कन्धं, सोपांगं गौतमो व्यधात् ।।१११।। [हरिवंश पुराण, सर्ग २, पृ. २०] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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