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________________ प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दि द्वारा “ तत्र सर्वज्ञेन परमर्षिणा " - इस पद में किये गये तृतीया विभक्ति के एक वचन के प्रयोग से तथा - "तस्य साक्षात् शिष्यैः बुद्धपतिशययुक्तः गणधरैः श्रुतकेवलिभिः” इस पद में गणधरों के लिये प्रयुक्त तृतीया विभक्ति के बहुवचन से निर्विवाद रूपेण यही अर्थ प्रकट होता है कि भगवान् महावीर ने प्रर्थतः श्रागमों का जो उपदेश दिया उसी को सब गणधरों ने द्वादशांगी के रूप में ग्रथित किया । इसमें आगे ऊहापोह अथवा शंका के लिये किसी प्रकार का अवकाश नहीं रह जाता ।. दूसरी मान्यता यह है कि भगवान् से अर्थतः आगमों का उपदेश सुनकर इन्द्रभूति गौतम ने उसी दिन एक मुहूर्त में द्वादशांगी की प्रतिरचना की । तिलोयपत्ति, ' धवला, जयधवला इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार और अंगपण्णत्ती' में इसी मान्यता का प्रतिपादन किया गया है । धवलाकार ने उपरिवरिणत मान्यता के प्रतिपादन के पश्चात् प्रागे चलकर अपनी एक ऐसी मान्यता रखी है, जो दिगम्बर श्वेताम्बर एवं यापनीय आदि सभी परम्पराओं के उपलब्ध समस्त जैन साहित्य में अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती । धवलाकार ने केवल द्वादशांगी को ही नहीं अपितु सामाइक, दशवैकालिक आदि १४ सूत्रों, १४ प्रकीर्णकों एवं अंगवर्ण्य भागमों को भी एक मात्र इन्द्रभूति द्वारा ही ग्रथित बताते हुए लिखा है •-. को होदि त्ति सोहम्मद चालणादो ( प्रश्नेन ) जादसंदेहेरग पंच पंचसयंतेवासिसिहियभादुत्तिदयपरिवुदेण मारणत्थंभदंसणेणेव परणट्ठमारणेण वड्ढमाणविसोहिणा वड्ढमारण जिरिंगददंसणेण गट्ठासं खेज्जभवज्जियगरुवकम्मेल जिरिंगदस्स तिपदाहिणं करिय, पंचमुट्ठीय वंदिय हियएरण जिरगं झाइय पडिवण्णसंजमेर विसोहिबले तोमुहुत्तस्स उप्पण्णा सेसर्गारंगदलक्खरण उवलद्ध जिणवयरणविरिणग्गयबीजपदेण गोदमगोत्तरेण बम्हरणेरण इंदभूइरणा - प्रायार-सुदयडट्ठा - समवाय-वियाहपण्णत्तिरगाहधम्मकहोवा सयज्झयरांतयड दस प्ररणुत्तरोववा " महावीर भासियत्यो तस्सि खेत्तम्मि तत्काले य ||७६|| विमले गोदमगोते जादेणं, इंदभूदिग्गामेणं ॥ ७८ ॥ | भावसुदपज्जएहि परिणदमइरणा य बारसंगाणं । चोट्स पुण्यारण तहा, एक्कमुहुत्ते विरचरणा विहिदा ||७६ || [तिलोयपण्पत्ति, प्रथम अधिकार ] * पुरणो तेरिंगदभूदिरणा भावसुद-पज्जयपरिणदेण बारहंगाणं चोट्स - पुण्वारणं च गंथारणमेक्केण चैव मुहतेण कमेण रथरणा कदा | [ धवला, १, १, १, पृ० ६६ ] दुवालसंगत्येण तेणेव काले 3 तदो तेल गोप्रमगोतेण इंदभूदिरणा तोमुहुत्तेगावहारिय कयदुबास संगगंथरय रोग.. [ जय धवला ] [ इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार ] [ श्रंग पण्णत्ती ] .... * तेनेन्द्रभूति-गणिना, तद्दिव्यवचोवबुध्य तत्त्वेन । प्रस्थोऽङ्गपूर्वनाम्ना प्रतिरचितो युगपदपराह्ने ॥६६॥ ५ सिरिवढमाणमुहकय विणिग्गयं बारहंग-सुदरगाणं । fifरगोममेण रयं प्रविरुद्ध सुरराह भवियजणा ||४२ || ( 5 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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