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________________ २१६ भगवती आराधना शरीरपीडां मम मा कृथा इत्यवचनं । मां पालयेति वा, शरीरमिदमन्यदचेतनं चैतन्येन सुखदुःखसंवेदनेन वाऽविशिष्टमिति वचनं वाचा विवेकः । वसतिसंस्तरयोविवेको नाम कायेन वसतावनासनं प्रागध्युषितायां, संस्तरे वा प्राक्तने अशयनं अनासनं । वाचा त्यजामि वसति संस्तरमिति वचनं । कायेनोपकरणानामनादानं, अस्थापनं क्वचिदरक्षा च उपधिविवेकः । वाचा परित्यक्तानीमानि ज्ञानोपकरणादीनि इति वचनं वाचा . उपधिविवेकः । भक्तपानयोरनशनं अपानं वा कायेन भक्तपानविवेकः । एवंभूतं भक्तं पानं वा न गृह्णामि इति वचनं वाचा भक्तपानविवेकः । वैयावृत्यकराः स्वशिष्यादयो ये तेषां कायेन विवेकः तैः सहासंवासः । मा कृथा वैयावृत्त्यं इति वचनं, मया त्यक्ता यूयमिति वचनं । सर्वत्र शरीरादौ अनुरागस्य ममेदं भावस्य वा मनसा अकरणं भावविवेकः ॥१७१।। परिग्रहपरित्यागक्रमं उपदिशति सव्वत्थ दव्वपज्जयममत्तसंगविजडो पणिहिदप्पा । णिप्पणयपेमरागो उवेज्ज सव्वत्थ समभावं ॥१७२।। सम्वत्थ इत्यादिना । 'सव्वत्थ' सर्वत्र देशे। 'पणिहिदप्पा' प्रणिहितात्मा प्रकर्षण निहितः निक्षिप्तः वस्तुयाथात्म्यज्ञाने आत्मा येन स प्रतिनिहितात्मा । 'दग्वपज्जयममत्तसंगविजडो' द्रव्येषु जीवपुद्गलेषु तत्पर्यायेषु च ममतारूपो यः संगः परिग्रहस्तेन परित्यक्तः। प्रणयः स्नेहः प्रेम प्रीतिः, राग आसक्तिः । क्व ? द्रव्यपर्यायेषु जीवद्रव्ये पुत्रदारमित्रादौ, तेषां नीरोगत्वधनवत्त्वादौ पर्याये, आत्मनो वा देवत्वे, चक्रवर्तित्वेऽहमिन्द्रत्वे वा । तथा शरीरे आहारादिके भोगसाधने, तदीयरूपरसगन्धस्पर्शपर्यायेपु वा, एतेभ्यः नहीं करता। यह कायसे शरीर विवेक है। मेरे शरीरको पीड़ा मत दो, अथवा मेरो रक्षा करो, [ न बोलना, अथवा यह शरीर अचेतन है, मुझसे भिन्न है, चैतन्यसे और सुख दुःखके संवेदनसे रहित है ऐसा वोलना वचनसे शरीर विवेक है। जिसमें पहले रहे हैं उस वसति में न रहना कायसे वसति विवेक है। पूर्वके संस्तर पर न सोना न बैठना कायसे संस्तर विवेक है। मैं वसति या संस्तर को त्यागता हूँ यह वचनसे वसति और संस्तर विवेक है। 'उपकरणोंका त्याग करता हूँ' ऐसा बोलना वचनसे उपधि विवेक है, भक्तपानको न खाना न पीना कायसे भक्तपान विवेक है। 'इस प्रकारके भोजन और पानको ग्रहण नहीं करता ऐसा कहना वचनसे भक्तपान विवेक है। वैयावृत्य करने वाले अपने शिष्यों आदिके साथ वास न करना कायसे विवेक है । 'वैयावृत्य मत करो' 'मैंने तुम्हारा त्याग किया ऐसा कहना' वचनसे विवेक है। सर्वत्र शरीर आदिमें अनुरागका 'यह मेरा है' इस प्रकार का भाव मनमें न करना भावविवेक है ।।१७१।। परिग्रह के त्यागका क्रम बतलाते हैं___ गा०-सर्व देशमें प्रतिनिहित आत्मा द्रव्य और पर्यायोंमें ममतारूपी परिग्रहसे रहित, प्रणय, प्रेम और रागसे रहित सर्वत्र समभावको प्राप्त होता है ।।१७२।। टी.-जिसने वस्तुके यथार्थ स्वरूप के ज्ञानमें आत्माको प्रकर्षरूपसे निहित किया है वह प्रतिनिहितात्मा है अर्थात् जो वस्तु स्वरूपके जानने में लीन रहता है और द्रव्य अर्थात् जीव पुद्गलमें और उनकी पर्यायोंमें ममता नहीं करता । और जीव द्रव्य अर्थात् पुत्र स्त्री मित्रादि में उनकी नीरोगता, धनवत्ता आदि पर्यायोंमें अथवा आत्माकी देवपना, चक्रवर्तीपना, अहमिन्द्रपना आदि पर्यायोंमें तथा शरीरमें, आहारादिमें; भोगके साधनमें और उनकी रूप, रस, गन्ध, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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