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________________ विजयोदया टीका २१५ मानकषायविवेकः । वाक्कायाभ्यां मायाविवेको द्विप्रकारः । अन्यत दुवत इवान्यस्य यद्वचनं तस्य त्यागो मायोपदेशस्य वा, मायां करोमि न कारयामि, नाभ्युपगच्छामि इति वा कथनं वाचा मायाविवेकः । अन्यकुर्वत इवान्यस्य कायेनाकरणं कायतो मायाविवेकः । लोभकषायविवेकोऽपि द्विविधः। यत्रास्य लोभस्तदुद्दिश्य करप्रसारणं, द्रव्यदेशानपायिता, तदुपादातुकामस्य कायेन निषेधनं हस्तसंज्ञया निवारणं, शिरश्चालनया वा एतस्य कायव्यापारस्य अकरणं कायेन लोभविवेकः शरीरेण वा द्रव्यानुपादानं । एतन्मदीयं वरतुग्रामादिकं वा अहमस्य स्वामीति वचनानुच्चारणं वा लोभविवेकः । नाई कस्यचिदीशो न च मम किञ्चिदिति वचनं वा। ममेदंभावरूपमोहजपरिणामापरिणतिर्भावतो लोभविवेकः ॥१७०॥ अहवा सरीरसेज्जा संथारुवहीण भत्तपाणस्स । वेज्जावच्चकराण य होइ विवेगो तहा चेव ।।१७१।। 'अहवा' अथवेति । विवेकः प्रकारान्तरेणावेद्यते । 'सरीरसेज्जासंथारुवहीणभत्तपाणस्स' शरीरविवेकः वसतिसंस्तरविवेकावुपकरणविवेकः, भक्तपान विवेकः । 'वेज्जावच्चकराण य' यावत्यकराणां च विवेको भवति । 'तहा चेव' तथैव द्रव्यभावाभ्यां इति यावत । तत्र शरीरविवेकः शरीरेण निरूप्यते । संसारिणः शरीराद्विवेकः कथमिति चेत् । शरीरेण स्वशरीरेण स्वशरीरोपद्रवापरिहरणं शरीरविवेकः । शरीरं उपद्रवन्तं नरं तियञ्चं देवं वा न हस्तेन निवारयति । मा कृथा ममोपद्रवमिति दंशमशकवृश्चिकभुजगसारमेयादीन हस्तेन, पिच्छाद्युपकरणेन, दण्डादिभिर्वाऽपसारयति । छत्रपिच्छकटकप्रावरणादिना वा न शरीररक्षां करोति । प्रकार इनसे में उत्कृष्ट हूँ ऐसा मनसे अहंकार न करना भावसे मान कषाय विवेक है। माया विवेक भी वचन और कायकी अपेक्षा दो प्रकार है। दिखाना तो ऐसा मानों कुछ अन्य बोलते हैं और बोलना.कछ अन्य, इसका त्याग अथवा माया पूर्ण उपदेशका त्याग, अथवा न मैं माया करता हूँ, न कराता हूँ, न अनुमोदना करता हूं ऐसा बोलना वचन माया विवेक है । अन्य करते हुए उससे अन्यका कायसे न करना काय माया विवेक है । लोभ कषाय विवेक भी दो प्रकारका है। जिस वस्तुका लोभ हो उसको लक्ष्य करके हाथ पसारना, जो उसे लेना चाहे उसे शरीरसे मना करना या हाथके संकेत से रोकना अथवा सिर हिलाकर मना करना, इस काय व्यापारका न करना काय लोभ विवेक है । अथवा शरीरसे वस्तुका ग्रहण न करना काय लोभ विवेक है। यह वस्तु ग्राम आदि मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ इत्यादि वचनका उच्चारण न करना, अथवा न मैं किसी का स्वामी हूँ और न कुछ मेरा है ऐसा बोलना वचन लोभ विवेक है। यह मेरा है इस भावरूप मोहजन्य परिणामका न होना भाव लोभ विवेक है ।।१७०।। गा०-अथवा शरीर विवेक, वसति विवेक, संस्तर विवेक, उपधि विवेक, भक्तपान विवेक, और वैयावृत्य करने वालोंका विवेक, द्रव्य और भाव रूप होता है ।।१७१।। टी-प्रकारान्तरसे विवेकके भेद कहते हैं । शरीर विवेक शरीर के द्वारा किया जाता है। - शङ्का-संसारी जीवका शरीरसे विवेक कैसे संभव है ? • समाधान-अपने शरीरमें होने वाले उपद्रवोंका दूर न करना, शरीर विवेक है । शरीरपर उपद्रव करने वाले मनष्य. तिर्यञ्च अथवा देव को हाथसे नहीं रोकता कि मेरे ऊपर उपद्रव मत करो। डांस, मच्छर, बिच्छू, सर्प, कुत्ते आदिको हाथसे, पिच्छी आदि उपकरणसे अथवा दण्ड वगैरहसे दूर नहीं करता। छाता, पीछी, चटाई अथवा अन्य किसी आवरणसे शरीरको रक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only • - www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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