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________________ विजयोदया टीका संबंधो व्याख्येयः । 'संखेज्जा' संख्याताः 'असंखेज्जा वा' असंख्याता वा 'सेसा' शेषा भवन्ति भवाः । 'जहण्णाए' जघन्यसम्यक्त्वाराधनया मृतिमुपेतस्य । उक्तास्तिस्र आराधनाः कस्य भवंति इत्यस्योत्तरमाह गाथया उक्कस्सा केवलिणो मज्झिमया सेससम्मदिट्ठीणं । अविरदसम्मादिट्ठिस्स संकिलिट्ठस्स हु जहण्णा ॥५०॥ उत्कृष्टा सम्यक्त्वाराधना भवति । कस्य, 'केवलिणो' केवलिनः । केवलमसहायं ज्ञानं । इंदियाणि, मनः, प्रकाशोपदेशादिकं वानपेक्ष्य वृत्तः । प्रत्यक्षस्यावध्यादेः आत्मकारणत्वादसहायतारतीति केवलत्वप्रसंगः स्यादिति चेन्न रूढेनिराकृताशेषज्ञानावरणस्योपजायमान एव बोधे केवलशब्दवृत्तेः । केवलिशब्दो यद्यपि सामान्येन केवलिद्वये प्रवृत्तस्तथापीह अयोगिकेवलिग्रहणं इत्यन्यत्र मरणाभावात् ।। उत्कृष्टता कथं सम्यक्त्वाराधनाया इति चेत इह द्विविधं सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वं वीतरागसम्यवत्वं चेति । रागो द्विविधः प्रशस्तरागः अप्रशस्तराग इति । तत्र प्रशस्तरागो नाम पंचगुरुषु, प्रवचने च वर्तमानस्तद् अर्थात् मध्यम शुक्ल लेश्यामें वर्तमान मध्यम सम्यक्त्वाराधना वालेके सात भव शेष रहते हैं । और जघन्य सम्यक्त्वाराधनाके साथ मरने वालेके संख्यात अथवा असंख्यात भव शेष होते है ।।४९।। विशेषार्थ---पं० आशाधरने अपनी टीकामें कहा है कि अन्य टीकाकार 'संखेज्जा-संखेज्जा भवाय' ऐसा पढ़कर 'भवाश्च' में आये शब्दसे अनन्तका समुच्चय करते हैं किन्तु हम 'वा' शब्दसे करते हैं । परन्तु विजयोदयामें 'च' शब्द या वा शब्दसे अनन्तका ग्रहण नहीं किया है ।।४।। उक्त तीन आराधनाएँ किसके होती हैं इसका उत्तर आगेकी गाथासे कहते हैं गा०-उत्कृष्ट आराधना केवलीके होती है । मध्यम आराधना शेष सम्यग्दृष्टियोंके होती है। जघन्य आराधना संवलेश परिणाम वाले अविरत सम्यग्दृष्टिके होती है ।।५०॥ टी०-उत्कृष्ट सम्यक्त्व आराधना केवलीके होती है। केवल अर्थात् असहाय ज्ञान; क्योंकि वह इन्द्रियां, मन, प्रकाश और उपदेश आदिकी अपेक्षाके बिना होता है। ___शंका-प्रत्यक्ष अवधि आदि ज्ञान आत्मासे ही होते हैं। वे भी इन्द्रियादिकी सहायताकी अपेक्षा नहीं रखते, अतः उनके भी केवल ज्ञान होनेका प्रसंग आयेगा? समाधान--नहीं, क्योंकि रूढ़िवश जिसका सम्पूर्ण ज्ञानावरण नष्ट हो गया है उसीके उत्पन्न होने वाले ज्ञानमें केवल शब्दका व्यवहार होता है। यद्यपि केवली शब्द सामान्यसे दोनों प्रकारके केवलियों में प्रवृत्त होता है तथापि यहाँ अयोग केवलीका ग्रहण किया है क्योंकि सयोग केवलीका मरण नहीं होता। शंका--सम्यक्त्व आराधनाकी उत्कृष्टता कैसे होती है ? समाधान-यहाँ सम्यक्त्वके दो भेद हैं-सरागसम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व । रागके दो भेद हैं-प्रशस्तराग और अप्रशस्त राग। उनमेंसे अर्हन्त सिद्ध आदि पाँच परमेष्ठियोंमें और १. मानस्यैव बोधस्य आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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