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________________ भगवती आराधना संपादयन् । 'दंसणं' श्रद्धानं । 'आराहतो' निष्पादय'न्मरणे' भवपर्ययप्रच्युतिकाले । 'असंजवो जवि वि' यद्यप्यसंयतः । 'सुविसुद्धतिब्वलेस्सो' कषायानुरंजिता योगवृत्तिलेश्या, सा षोढा प्रविभक्ता कृष्णनीलकापोततेजः पद्मशुक्ललेश्याभेदेन । तत्राशुभलेश्यानिरासार्थं सुविशुद्धग्रहणं । तीव्रग्रहणं परिणामप्रकर्षोपादानाय । सुविशुद्धा तीव्रा लेश्या यस्य सुविशुद्धतीव्रलेश्यः । ‘परित्तसंसारिओ' अल्पचतुर्गतिपरिवर्तः । 'होदि' भवति । अल्पसंसारता सम्यक्त्वाराधनायाः फलत्वेन दर्शिता ।।४७|| तत्त्वश्रद्धानपरिणामः कतिभेदः किं फलं इत्यस्य प्रतिवचनमुत्तरप्रबंधः । तत्र भेदप्रतिपादनायाह तिविहा समत्ताराहणा य उक्कस्समज्झिमजहण्णा ॥ उक्कस्साए सिज्झदि उक्कस्सससुक्कलेस्साए ॥४८॥ "तिविहा' त्रिविधा। 'सम्मत्ताराहणा' सम्यक्त्वाराधना। 'उक्कस्समज्झिमजहण्णा' उत्कृष्टमध्यमजघन्या चेति । तत्र 'उक्कस्साए' उत्कृष्ट्या सम्यक्त्वाराधनया । 'सिज्झइ' सिध्यति निवृतिमुपैति । उत्कृष्टशुक्ललेश्यासहितया ॥४८॥ सेसा य हुंति भवा सत्त मज्झिमाए य सुक्कलेस्साए । संखेज्जाऽसंखेज्जा वा सेसा भवा जहण्णाए ॥४९।। 'सेसा' अवशिष्टाः। 'होति' भवन्ति । किं 'भवा' मनुष्यत्वादिपर्यायाः। कति ‘सत्त' सप्त । 'मज्झिमाए य' सम्यक्त्वाराधनया । 'सुक्कलेस्साए' शुक्ललेश्यया मध्यमया वर्तमानस्येत्युभाभ्यां मध्यमशब्दस्य विशुद्धिको बढ़ाते हुए दर्शन विनय करते हैं वे सम्यक्त्वके आराधक हैं। मरण अर्थात् भवपर्यायके छुटने के समय यद्यपि असंयत होता है किन्तु जो सम्यग्दर्शनको धारण किये होता है और सुविशुद्ध तीव्रलेश्या वाला होता है । कषायसे रंगी हुई मन वचन कायकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । उसके कृष्ण, नील, कपोत, तेज, पद्म और शुक्लके भेदसे छह भेद हैं। उनमें अशुभ लेश्या का निराकरण करनेके लिये 'सुविशद्ध' पद ग्रहण किया है। तथा परिणामोंका प्रकर्ष बतलानेके लिए तीव्र पद ग्रहण किया है। जिसके सुविशुद्ध तीव्र लेश्या होती है वह सुविशुद्ध तीव्र लेश्या वाला होता है । वह चतुर्गतिरूप परिवर्तमें अल्पकाल तक भ्रमण करता है। इस प्रकार सम्यक्त्वकी आराधना का फल अल्प संसार बतलाया है ॥४७॥ तत्त्वश्रद्धानरूप परिणामके कितने भेद हैं तथा उसका क्या फल है इसके उत्तरमें आगेका कथन करते हुए पहले भेद कहते हैं गा०--सम्यक्त्वकी आराधना तीन प्रकारकी है। उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या सहित, उत्कृष्ट सम्यक्त्व आराधनामें मोक्ष प्राप्त करता है ॥४८॥ टी०–सम्यक्त्व आराधनाके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ऐसे तीन भेद हैं । उत्कृष्ट शुक्ल लेश्याके साथ यदि उत्कृष्ट आराधना सम्यक्त्वकी हो तो उससे मोक्ष प्राप्त होता है ।।४८।। गा०-और मध्यम शुक्ल लेश्याके साथ मध्यम सम्यक्त्वाराधनासे सात मनुष्य आदि पर्याय शेष होती है। जघन्य सम्यक्त्वाराधनासे संख्यात अथवा असंख्यात (भव) भव अवशेष रहते हैं ॥४९॥ टी०--गाथामें आये मध्यम शब्दका सम्बन्ध दोनोंमें लगाकर व्याख्यान करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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