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________________ पंचसंग्रह : ७ सामान्य से तो संक्रम का लक्षण है कि परस्पर एक का बदलकर दूसरे रूप हो जाना । लेकिन विशेषता के साथ इसका आशय यह हुआ कि बध्यमान प्रकृतियों में अबध्यमान प्रकृतियों का जो संक्रम होता है अर्थात् बध्यमान प्रकृति रूप में परिणमन होता है, अपने स्वरूप को छोड़कर बंधने वाली प्रकृति के रूप में परिवर्तित होकर उसके स्वरूप को प्राप्त करती हैं, उसे संक्रम कहते हैं । जैसे कि बध्यमान सातावेदनीय में अबध्यमान असातावेदनीय संक्रमित होती है अथवा बंध हुए उच्चगोत्र में नहीं बंधते हुए नीचगोत्र का संक्रम होता है, वह संक्रम है । जो प्रकृति जिसमें संक्रांत होती है, वह प्रकृति उस रूप हो जाती है । असातावेदनीय जब सातावेदनीय में संक्रांत होती है तब सातावेदनीय रूप हो जाती है यानी वह सातावेदनीय का ही - सुख उत्पन्न करने रूप - कार्य करती है । इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये तथा बध्यमान प्रकृतियों का भी, जैसे कि• बध्यमान श्रुतज्ञानावरण में बध्यमान मतिज्ञानावरण का और बध्यमान मतिज्ञानावरण में बध्यमान श्रुतज्ञानावरण का परस्पर जो संक्रम होता है, वह भी संक्रम कहलाता है । यहाँ यह जानना चाहिये कि बध्यमान प्रकृतियों में संक्रमकरण के द्वारा जो प्रकृतियां संक्रांत होती हैं, वे उस रूप में हो जाती हैं । यानि कि जिसमें संक्रमित हुई, उसका कार्य करती हैं। जैसे नीचगोत्र जब उच्चगोत्र में संक्रांत होता है, तब जितना दलिक उच्चगोत्र के रूप में हुआ वह उच्चगोत्र का ही कार्य करता है । परन्तु यह ध्यान में रखना चाहिये कि सत्तागत सभी दलिक संक्रांत नहीं होता है, अमुक भाग ही संक्रांत होता है । यथा नीचगोत्र जब उच्चगोत्र में संक्रमित होता है तब नीचगोत्र सर्वथा संक्रमित होकर अपनी सत्ता ही नहीं छोड़ देता है, किन्तु नीचगोत्र का अमुक भाग ही संक्रांत होता है, जिससे उसकी सत्ता बनी रहती है । जितना संक्रांत होता है, उतना ही उस रूप में होता है । यह नियम सर्वत्र ध्यान में रखना चाहिये । Jain Education International ४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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