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________________ पंचसंग्रह : ७ विशेषार्थ-अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, संज्वलनकषायचतुष्क तथा नव नोकषाय इन सत्रह प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागसंक्रम सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है । जिसका स्पष्टीकरण यह है-अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क के सिवाय शेष तेरह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागसंक्रम उन-उन प्रकृतियों के क्षयकाल में उनकी जघन्य स्थिति का जब संक्रम होता है, तब होता है और अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क का जघन्य अनुभागसंक्रम सम्यक्त्व अवस्था में उन कषायों की उद्वलनासंक्रम द्वारा सर्वथा उद्वलना हो जाये, उसके बाद गिरकर मिथ्यात्व में आने पर और वहाँ मिथ्यात्व रूप हेतु के द्वारा पुनः बंध हो तो बंधावलिका के बीतने के पश्चात् दूसरी आवलिका के प्रथम समय में होता है। प्रश्न--संज्वलनचतुष्क आदि प्रकृतियों का जघन्य रससंक्रम उनके जघन्य स्थितिसंक्रमकाल में कहा और अनन्तानुबंधि का उस कषाय के सर्वथा उद्वलित हो जाने के बाद मिथ्यात्व में आकर पुनः बांधे और उसकी बंधावलिका के जाने के बाद दूसरी आवलिका के प्रथम समय में कहा है, तो इसका कारण क्या है ? जघन्य स्थितिसंक्रमकाल में उसका जघन्य रससंक्रम क्यों नहीं बताया है ? उत्तर---अनन्तानुबंधि की जघन्यस्थिति का संक्रम अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने पर उसका चरम खंड सर्वथा संक्रमित करे तव होता है । उस समय चरम खंड में कालभेद से अनेक समय के बंधे हुए दलिक होते हैं। अनेक समय के बंधे हुए दलिक होने के कारण उसमें शुद्ध एक ही समय के बंधे हुए दलिकों के रस से अधिक रस होना स्वाभाविक है। इसीलिये ऊपर के गुणस्थान में अनन्तानुबंधि का नाश करके गिरने पर पहले गुणस्थान में आये तब वहाँ तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम की शक्यतानुरूप अल्प स्थिति और रस वाले दलिक बांधे, बंधावलिका के बीतने के अनन्तर दूसरी आवलिका के प्रथम समय में वह शुद्ध एक समय के बंधे हुए जघन्य रस युक्त दलिक को संक्रमित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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