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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ १४६ अनुत्कृष्ट और जघन्य ये तीन शेष हैं । उनमें जघन्य सादि-सांत है । जिसका स्पष्टीकरण अजघन्यभंग के विचार में किया जा चुका है । चार घातिकर्म का मिथ्यादृष्टि जब उत्कृष्ट रस बांधे और उसकी बंधावलिका के जाने के बाद जब तक सत्ता रहे, तब तक संक्रमित करता है, उसके बाद अनुत्कृष्ट को संक्रमित करता है । इस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव के एक के बाद एक के क्रम से उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट रस का संक्रम होते रहने से वे दोनों सादि-सांत हैं तथा चार अघातिकर्म के जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट ये तीन विकल्प शेष हैं । उनमें से अनुत्कृष्ट रससंक्रम के प्रसंग में उत्कृष्ट रससंक्रम का विचार किया जा चुका है । जघन्य रससंक्रम सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय के होता है तथा अजघन्य भी उसी के होता है, इसलिये वे दोनों सादि-सांत हैं । इस प्रकार से अनुभागसंक्रम विषयक मूलकर्मसम्बन्धी साद्यादि प्ररूपणा जानना चाहिये । अब उत्तरप्रकृतिसम्बन्धी साद्यादि प्ररूपणा करते हैं । अनुभाग संक्रमापेक्षा उत्तरप्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा अजहण्णो चउभेओ पढमगसंजलणनोकसायाणं । साइयवज्जो सो च्चिय जाणं खवगो खविय मोहो ॥ ६६ ॥ शब्दार्थ - अजहण्णो- अजघन्य, चउभेओ- चार प्रकार का, पढमगसंजलणनोकसायाणं- - प्रथम कषाय, संज्वलन और नव नोकषायों का, साइयवज्जो - सादि के बिना, सो च्चिय-- वही ( अजघन्य ), जाणं - जिनका, खवगो - क्षपक, खविय मोहो - मोह का क्षय किया है । गाथार्थ - प्रथम कषाय (अनन्तानुबंधिकषाय), संज्वलनकषाय और नव नोकषाय का अजघन्य अनुभागसंक्रम चार प्रकार का है तथा जिन प्रकृतियों का क्षपक - जिसने मोह का क्षय किया ऐसा - जीव है, उनका अजघन्य अनुभागसंक्रम सादि के बिना तीन प्रकार का है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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