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________________ १४ [ समराइच्चकहा और संवर्द्धन की प्रेरणा दे रहा है । उदयगिरि, गान्धार पर्वत, वैताढ्यपर्वत, मन्दरगिरि, मेरुपर्वत, रत्नागिरि, लक्ष्मीपर्वत, शिलीन्ध्रपर्वत, सुवेलपर्वत, सुंसुमारगिरि, हिमवत् जैसे पर्वत तथा गंगा, सिन्धु, शिप्रा और ऋजुबालिका जैसी नदियों के किनारे घटित सहस्रों घटनाएं हमें जीवन के लिए शिक्षाएँ प्रदान करती हैं। हमारे देश में प्राचीनकाल से ही प्रायः राजतन्त्रात्मक शासन रहा है । राजा प्रजा के सही शुभचिन्तक थे और उनके राज्य में रहकर प्रजा कभी भी अपने को अनाथ नहीं मानती थी। समराइच्चकहा के नौ भवों की कथाओं में से प्रत्येक भव की कथा प्रायः स्वाभिमानी, शत्रुओं के मान-मर्दन करने वाले, धर्म तथा अधमं की भली-भाँति व्यवस्था करने वाले, नीतिमान्, दयावान्, प्रजा के हित में अत्यन्त प्रीति रखने वाले, निर्मल वंश में उत्पन्न तथा मनुष्यों के मन और नयन को आनन्द प्रदान करने वाले हुआ करते थे । राज्याभिषेक से पूर्व प्रायः युवराजपद पर अधिष्ठित कर राजकार्य की शिक्षा दी जाती थी । बड़े-बड़े राजाओं के अधीन छोटे-छोटे सामन्त राजा रहते थे। कभी-कभी ये अवसर पाकर राजा पर आक्रमण भी कर देते थे । इन लोगों के भी सुदृढ़ दुर्ग थे और पराजय की आशंका कर कभी-कभी ये लम्बे समय तक दुर्ग का आश्रय लेते थे । राजा के कार्य में प्रमुख रूप से सहायक मन्त्री होता था । समराइच्चकहा में इसे मन्त्री महामन्त्री, अमात्य, प्रधान अमात्य, सचिव तथा महासचिव जैसे शब्दों से अभिहित किया गया है । अमात्य की भाँति पुरोहित का पद महत्वपूर्ण था । पुरोहित समस्त लोगों का माननीय, धर्मंशास्त्रों का अध्येता, लोक-व्यवहार तथा नीति में कुशल तथा अल्प आरम्भ और परिग्रह को रखने वाला था । राजाओं के कोष का अधिकारी भाण्डागारिक कहलाता था । आवश्यकता पड़ने पर राजा भाण्डागारिक को किसी व्यक्ति विशेष को धन वगैरह देने हेतु आदेश देता था । राजा की छत्रछाया में नाटक, काव्य, नृत्य तथा अन्य प्रकार की ललित कलाएँ वृद्धि को प्राप्त होती थीं । भयंकर वनों में माल लेकर जाते हुए व्यापारियों को प्रायः शबर, भील आदि जंगली जातियाँ लूट लिया करती थीं । अतः व्यापारी सार्थ बनाकर चला करते थे । सार्थ का एक मुखिया होता था! जिसे सार्थवाह कहते थे । सार्थवाह प्रायः व्यापार निपुण होने के साथ-साथ वीर भी हुआ करते थे और आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं का प्रतिरोध करने और उन्हें ध्वस्त करने में पीछे नहीं रहते थे । सार्थवाह विदेश पहुँचने पर वहाँ के राजा को भेंट वगैरह प्रदान करते थे । राजा भी उनका यथोचित सम्मान करते थे । किसी व्यक्ति के अपराध करने पर उसकी अच्छी तरह परीक्षा कर कड़ी सजा दी जाती थी । कभी-कभी कुलाचार वगैरह का ध्यान कर ऐसे लोगों को चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता था, किन्तु ऐसे व्यक्तियों ने पुनः अपराध किये हों, इस प्रकार के दृष्टान्त नहीं प्राप्त होते हैं । प्रायः लोग अपनी कुलीनता का ध्यान रखते थे । स्त्रियाँ अवध्य मानी जाती थीं, अतः उन्हें देशनिकाले की सजा दी जाती थी । राजद्रोही पुत्र को भी देश से निर्वासित कर दिया जाता था । राजा सर्वोच्च न्यायाधिकारी होता था । महत्त्वपूर्ण मामलों में राजा नगर के बड़े लोगों से भी सलाह लिया करता था । शत्रुओं को दबाने के लिए हस्ति; अश्व, रथ और पदाति सेना का उपयोग किया जाता था। अपराधी को कठोर दण्ड दिया जाता था। शत्रु राजा के प्रति दण्ड से पूर्व साम का प्रयोग किया जाता था। एक राजा की स्त्री का हरण हो जाने पर मन्त्री ने सलाह दी कि हरण करने वाले के पास सबसे पहले दूत भेजा जाना चाहिए, यदि दूत की बात न मानकर वह रानी को वापिस नहीं करता है तो दण्डनीति का अवलम्बन लेना चाहिए। इसके उत्तर में राजा कहता है कि स्वस्त्री का हरण करने वाले के प्रति भी दूत भेजना अपूर्व सामनीति है । समराइच्चकहा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रये चार वर्ण और शक, यवन, बर्बरकाय, मुरुण्ड; गौड़, चाण्डाल, डोम्बलिक, रजक, चर्मकार शाकुनिक, मछुआ, यक्ष, नाग, किन्नर, विद्याधर तथा गन्धर्व आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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