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________________ [ समराइचकहा हुई। पत्नी के कहने पर तुमने उन्हें श्रद्धापूर्वक योग्य आहार कराया और ठीक रास्ता बतला दिया । उन साधुओं ने तुम्हें जिनोपदेशित धर्म कहा । तुम दोनों ने पक्ष के एक दिन सावध आरम्भ का त्याग करने की प्रतिज्ञा की एक ऐसे ही दिन एक बार एक सिंह ने तुम दोनों के ऊपर आक्रमण किया। व्रत के कारण तुमने कोई प्रतिकार नहीं किया। अतः सिंह के द्वारा मारे जाकर तुम दोनों एक ही समय सौधर्म स्वर्ग में ऋद्धिधारी देव हुए । पल्योपम आयु वाले आप दोनों वहाँ भोग भोगकर आयु क्षीण हो जाने पर इसी देश में उत्पन्न हुए। वहाँ पर सुन्दर संयोग को पाकर भी जिस प्रकार कठिन दुःख को तुमने पाया, उसे सुनोपश्चिम विदेह क्षेत्र में चक्रपुर नाम का नगर है । वहाँ पर कुरुमृगांक नाम का राजा अपनी महारानी बालचन्द्रा के साथ रहता था। बालचन्द्रा के गर्भ में तुम आये तुम्हारी देवी भी राजा के साले सुभूषण के घर पुण्यवती कुरुमती देवी के उदर में आयी । उत्पन्न होने पर तुम्हारा नाम समरमृगांक और देवी का नाम अशोक देवी रखा गया । अनन्तर वृद्धि को प्राप्त होने पर तुम दोनों का विवाह हुआ । अनन्तर तुम्हारे माता-पिता विरक्त होकर प्रव्रजित हो गये। तुम अपने राज्य पर राजा के रूप में विराजमान हुए । इसी समय तिर्यंचों का वियोग और निर्दयता पूर्वक उनका घात करने के दुष्ट कर्मों का फल तुम्हारे उदय में आया। उसी देश के भम्भानगर के राजा श्रीबल के साथ तुम्हारा अकारण युद्ध हुआ । उसमें तुम श्रीबल के द्वारा मारे गये । रौद्रध्यान के कारण मरकर कर्म के दोष से प्रथम नरक में सत्रह सागर की आयु वाले नारकी हुए। तुम्हारे मरण से दुःखी महारानी ने निदान किया कि 'राजा समरमृगांक जिस स्थान में उत्पन्न हुआ है, एकमात्र उसी स्थान में मैं भी नियम से उत्पन्न होऊँ ।' अनन्तर अग्नि में प्रविष्ट हो दुःखी मन वाली वह मरकर जिस नरक में वहीं उत्पन्न हुई । तुम नरक से निकलकर पुष्करार्द्धं भरत की वेण्णा नगरी में दरिद्र गृहपति के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुए तुम्हारी पत्नी भी उसी भारतवर्ष में तुम्हारी सजातीय दरिद्र पुत्री हुई तुम दोनों का विवाह हुआ। एक बार तुम दोनों को अपने घर में बैठे देखकर आहार के लिए साध्वियां आयीं। तुम दोनों ने विधिपूर्वक प्रासुक भिक्षा का दान दिया। अनन्तर साध्वियों के प्रतिश्रय में जाकर तुम दोनों ने गणिनी की वन्दना की। गणिनी के उपदेशानुसार तुम दोनों ने भावक के व्रत ग्रहण किये। अनन्तर मृत्यु को प्राप्त कर ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ से ब्युत होकर दोनों यहाँ राजा के घर उत्पन्न हुए। शबर- जन्म के तीव्र कर्म के कारण तुम दोनों ने दुःख भोगा है। यह वृत्तान्त सुनकर मैंने महारानी और प्रधान परिजनों के साथ प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। इस प्रकार अपना वृत्तान्त कहकर भगवान् शेष साधुओं के साथ चले गये । दिन वानमन्तर अयोध्या आया । उसने कुमार के परिजनों के समीप कपटवार्ता की कि विग्रह ने कुमार को मार डाला है । यह सुनकर रत्नवती मूच्छित हो गयी, परिजन व्याकुल हो गये । अनन्तर एक गणिनी से कुमार गुणचन्द्र की कुशलता की बात सुनकर रत्नवती ने धैर्य धारण किया। रत्नवती ने गणिनी से पूछा- किस कर्म का यह इस प्रकार का महा भयंकर फल है ? गणिनी ने कहा- थोड़ी-सी अज्ञान चेष्टा का यह फल है, सुनो, थोड़े से कर्म से मैंने जो पाया। 'तुम । 1 एक कौशल देश का नरसुन्दर नाम का राजा था । उसकी मैं इस जन्म की पत्नी थी। एक बार वह घोड़े पर सवार होकर गया अभिमानी घोड़ा उसे हर ले गया और महावन में छोड़ दिया। उस राजा ने मध्याह्नकाल में एक अपूर्व दर्शन वाली स्त्री देखी। राजा के पूछने पर उसने अपना परिचय दिया कि मैं यक्षिणी हूँ और यह विन्ध्य वन है। मैं नन्दनवन से प्रियतम के साथ मलयवन जा रही थी। इस स्थान पर मेरे प्रियतम कुपित हो गये और मुझे छोड़कर चले गये। अनन्तर राजा को उसने अपने ऊपर अनुरक्त करने की चेष्टाएँ कीं । राजा ने उसे समझाया, किन्तु वह नहीं मानी। अनन्तर वह द्वेषी हो राजा को मारने Jain Education International ब. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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