SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका ४३ उपद्रव करना प्रारम्भ किया। इसी बीच कहीं से गमनरति नामक क्षेत्रपाल वानव्यन्तर आया। उसे देखकर शक्ति की कमी तथा विद्याबल की अल्पता के कारण वानमन्तर विद्याधर भाग गया। उत्तरापथ देश के शंखपुर पत्तन में शांखायन नाम का राजा था। उसकी स्त्री कान्तिमती थी। उसकी पत्री का नाम रत्नवती था। वह रूप की अधिकता के कारण मनियों के मन को हरण करने वाली थी तथा कला में विचक्षण होने के कारण अन्य कन्याओं से असाधारण थी। उसके विवाह की चिन्ता करती हई कान्तिमती ने प्रत्येक दिशा में राजपुत्रों के रूप और ज्ञान को जानने के लिए आदमी भेजे । राजपुरुष प्रत्येक दिशा में गये । उन्होंने बहुत से राजपुत्रों को देखा । अन्त में उन्होंने कुमार गुणचन्द्र को रत्नवती के योग्य पाया। शुभ मुहूर्त में दोनों का विवाह हुआ। एक बार सीमा पर रहने वाला 'विग्रह' नामक राजा मैत्रीबल के विरुद्ध हो गया। उसने उनके ऊपर आक्रमण कर दिया । कुमार विग्रह को दबाने के लिए ससैन्य गया । विग्रह ने दुर्ग का आश्रय लिया। इसी बीच किसी प्रकार घूमते हुए उस स्थान पर वानमन्तर आया। उसने दुर्ग के समीप अश्वक्रीडनक भूमि में कुमार को देखा । गुणचन्द्र का अहित करने की इच्छा से उसने विग्रह से मैत्री कर ली । विग्रह के आग्रह पर वह रात्रि में विग्रह को वानमन्तर के महल में ले गया। विग्रह ने सोते हुए गुणचन्द्र को जगाया। दोनों का युद्ध हुआ । अन्त में बाल खींचकर गुणचन्द्र ने विग्रह को गिरा दिया । 'कुमार की जय हो' ऐसा कोलाहल उठने के बाद वानमन्तर अन्तर्धान हो गया। कुमार गुणचन्द्र ने विग्रह से मैत्री स्थापित कर ली। इसी बीच भगवान् विजयधर्म नामक आचार्य आयोध्या आये । कुमार उनकी वन्दना के लिए विग्रह और प्रधान परिजनों के साथ गया । आचार्य की वन्दना की । इसी समय आकाश से दिव्यरूप सम्पन्न, हर्षित, युतिमान् विद्याधर कुमार वहाँ आया । उसने कहा-भगवन् ! आपने अपना जो वृत्तान्त यहाँ कहा है, उसके विषय में मुझे बड़ा कौतूहल है । अत: मुझ पर अनुग्रह करने के लिए कहिए । भगवान् ने कहा- तुम लोगों को यदि कोतूहल है तो सुनो इस भारतवर्ष में विख्यात मिथिला नामक नगरी है । उसका मैं विजयधर्म नाम का राजा था। मुझे चन्द्रधर्मा नामक पटरानी इष्ट थी। एक बार एकाएक 'स्त्रीजन है', ऐसा मानकर मेरे हृदय को न जानते हुए किसी मन्त्र सिद्ध करने वाले ने मन्त्र के विधान के लिए उसे अन्तःपुर के मध्य से हर लिया। यह वृत्तान्त सुनकर मुझे बहुत अधिक दुःख हुआ। तीन दिन बीत गये। चौथे दिन तप के कारण दुर्बल, शरीर में भस्म लगाये, जटाधारी मन्त्र सिद्ध करने वाला आया और उसने कहा-राजन् ! आप क्यों आकुल होते हैं ? मन्त्र के विधान के लिए मैंने आपकी पत्नी ले ली थी। आप उसे पहिले न माँगें । उसका शीलभेद नहीं होगा और न शरीर को पीड़ा होगी। अत: अत्यधिक दुःखी मत हों, मैं छह माह में दूंगा-ऐसा कहकर अदृश्य हो गया । मेरे पाँच माह बड़े कष्ट से बीते । अनन्तर बधाई देने वाले ने हर्षित हो एकाएक कहा कि महाराज तीर्थकर देव आये हैं । मैं परमभक्तियुक्त हो उनके समवसरण में गया और पुनः-पुन: नमस्कार कर अपने स्थान पर बैठ गया । भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। सारी सभा सन्तुष्ट हुई। इसी बीच समवसरण में मुझे देवी दिखाई दी। मैंने भगवान् जिनेन्द्र से अपना दोष पूछा, जिसके कारण महारानी के विरह में मैंने दारुण दुःख का अनुभव किया। उन्होंने कहना आरम्भ किया जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में विन्ध्य नामफ पर्वत है । वहाँ पर तुम शिखरसेन नामक शबरों के राजा थे। उस वन में तुमने भयभीत और सुख के अभिलाषी शूकर, साँड, पसय (मृगविशेष) और हरिणों के जोड़ों को अलग किया । यह महारानी भी तुम्हारी श्रीमती नामक स्त्री थी। एक बार साधुओं का एक समूह रास्ता भूलकर अत्यन्त दुर्बल हुआ उस स्थान पर आया। उन्हें देखकर तुम्हारे मन में दया उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy