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________________ २५० [समराइच्चकहा खज्जयस्स सभीवं । उट्रिविओ तीए खज्जओ। तओ मए चितियं-हद्धी एयस्स साहिऊण जहासमोहियं करिस्सइ त्ति । एत्थंतरम्मि घुम्मंतलोयणेणं भणियं खुज्जएणं--कीस तुमं अज्ज एत्तियाओ वेलाओ ति? तओ भए चितियं हा किमेयं अज्ज ति संलवइ ? अहवा अणचियागमणा इमाए वेलाए देवी, अओ एवं मंतियं ति । होउ, पडिवयणं सुणेमि । तओ देवीए भणियं-अज्ज खु विसमधाउओ चिराओ पसुत्तो राया, अओ एस कालक्खेवो ति। तओ मए चितियं हा किमयं ? एत्यंतरम्मि कढिणहत्थेण तेण गहिया अगरुधूमामोयगम्भिणे केसहत्थे देवी । तओ पाडिया तेण समयं देवी। सिक्कारमणहरं च तस्स यममं च मयणकोवाणलसंधकरणं वियंभियं तीए सह मोहचेट्रियं । आलिंगिया तेण, चुंबियं च से चलंततारयं वयणं। एयं च वायायणपविट्ठचंदालोयभासियं वइयरमवयच्छिऊण अविवेयपवणसंधुक्किओ पज्जलिओ मे मणम्भि कोवाणलो। कड्ढियं च तमालदलनोलं मंडलग्गं । चितियं च 'वावाएमि एए दुवे वि पावे' ति। तओ तं चेव किरणावलोभासुरं जलंतमिव पेच्छिऊण इसि पणट्टमविवेयंधयारेण । जाया य मे चिता । जेण मए परचक्कगयघडावियारणलालसा समीपम्। उत्थापितस्तया कुब्जकः। ततो मया चिन्तितम्--हा धिक, एतस्य कथयित्वा यथासमीहितं करिष्यतोति । अत्रान्तरे घूर्णदलोचनेन भणितं कुब्जकेन-कस्मात् त्वमद्य एतावत्यां वेलायाम् ? ततो मया चिन्तितम् हा ! किमेतद् 'अद्य' इति संलपति । अथवाऽनुचितगमनाऽस्यां वेलायां देवी, अत एवं मन्त्रितम् । भवतु, प्रतिवचनं शृणोमि । ततो देव्या भणितम् -अद्य खलु विषमधातुकश्चिरात् प्रसुप्तो राजा, अत एव कालक्षेप इति । ततो मया चिन्तितम् -हा ! किमेतत् अत्रान्तरे कठिनहस्तेन तेन गृहीताऽगुरुधूमामोदगभिते केशहस्ते देवी । ततो पातिता तेन समदं देवी। सित्कारमनोहरं च तस्य च मम च मदनकोपानलसन्धुक्षणं विज़म्भितं तया सह मोहचेष्टितम् । आलिङ्गिता तेन, चुम्बितं च तस्याश्चलत्तारकं वदनम् । एतं च वातायनप्रविष्टचन्द्रालोकभासितं व्यतिकरमवगत्याविवेकपवनसन्धुक्षित: प्रज्वलितो मे मनसि कोपानल: । कर्षितं च तमालदलनोलं मण्डलाग्रम् । चिन्तितं च 'व्यापदयामि एतौ द्वावपि पापौ इति । ततस्तमेव किरणावलिभासुरं ज्वलन्तमिव प्रेक्ष्येषत् प्रनष्टमविवेकान्धकारेण । जाता च मम चिन्ता---येन मया परचक्रगजघटाके पास गयी। उसने कुबड़े को उठाया । तब मैंने सोचा--'हाय धिक्कार है, इससे कह कर इष्ट कार्य करेगी।' इसी बीच आँख मलते हुए कुबड़े ने कहा-"तुम आज इतनी देर से क्यों आयी ?' तब मैंने सोचा-'हाय, यह 'आज' ऐसा क्यों कह रहा है । अथवा महारानी का इस समय जाना अनुचित है- अत: ऐसा कहा है।' अच्छा, उत्तर सुनता हूँ। तब महारानी ने कहा- 'आज राजा अस्थिरचित्त होने के कारण देर से सोया अतएव देरी हुई।' तब मैंने सोचा---हाय ! यह क्या है ? इसी बीच उसने कुबड़े ने) कठोर हाथों से अगुरु के धुएं से सुगन्धित बालों को हाथ में लिया और मतवाला होकर देवी को गिरा दिया। सीत्कार से मनोहर उसकी मोहचेष्टा काम से बढ़ती रही और मेरी क्रोध रूपी अग्नि में धधकती रही। उसने (कुबड़े ने) महारानी का आलिंगन किया और चंचल नेत्रों वाले उसके मुँह को चूमा। इस प्रकार झरोखे से प्रविष्ट चन्द्रमा के प्रकाश से देदीप्यमान घटना को जानकर अविवेक रूपी वायु से धौंकी हुई क्रोधरूपी अग्नि मेरे मन में जल उठी। तमाल के पत्ते के समान नीली तलवार मण्डलाग्र) को मैंने खींचा और सोचा कि इन दोनों पापियों को मार डालूँ । अत: अविवेक रूपी अन्धकार से नष्ट हुए उन्हें उन्हीं किरणों के प्रकाश में जलता हुका देगा। मेरे मन में विचार उत्पन्न हुआ-"जिस ---- १. . धायबो-ख, २. हा ! निस्संदेहमकज्जन्ति-ख, ३. केसकलावे-ख, ४. घडिया तेणं सम-फ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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