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________________ उत्यो भवो ] २७६ गंडोवहाणयं विमलकलधोयमओवणीय [मणो ] हरपडिग्गहं उल्लंबियसुर हिकुसुमदामनियरं कणयमयमहमहंतधूवघडिया उलं पज्जलिय विइत्तधूमवत्तिनिवहं चडुलकलहंसपारावयमिहुण सोहियं विरइपकप्पूरवीडयसणा लंबोलपडलयं वट्टियविलेवणपुण्णविविहवापायणनिमियमणिवट्टयं सुरहिपडवासभरियमणोहरोवणीयकणयकच्चोलं तप्पियवरवारुणी सुरहि कुसुमसंाइयमरणपूर्व रईए वित्र सपरिवाराए नयणावलीए समद्धातिय वासगेहं ति । उवविट्टो पल्लंके । कंचि कालं गमेऊण निग्गओ देवरियो । थेववेलाए पत्ता देवी । अहं च विसहसुहं विमुहियचित्तोवि नेहाणुरागओ 'देवी परिच्चइव्वा, एद्दहमेत्तं एत्थ दुक्करं 'ति चितयंतो चिट्ठामि जाव सा देवी पसुतो नरवइ' ति मन्नमाणा मोतूण पल्लंकमोइण्णा कोट्टिमतलं । ससंका य उग्धाडिऊण दुवारं निगया वा नहाओ । तओ मए चितियं - किं पुण एसा अवेलाए अइन्नदुवारं निग्गय त्ति ? नूणं मम भाविविओवकायरा देहच्चायं ववसिस्सइति । तो अहं घेत्तूण असिवरं निग्गओ तीए पिट्ठओ । गया य सा पासायवालस्स सनाथम्, आस्तृतप्रवर तूली वितीर्णगण्डोपधानकम्, विमलकलधौतमयोपनोतमनोहरपतग्रहम्, उल्लम्बित सुरभिकुसुमदामनिकरम् कनकमयमघमघावमान (प्रस रद्) धूपघटिकाकुलम्, प्रज्वलितविचित्रधूमवतिनिवहम्, चटुलकलहंसपारापतमिथुनशोभितम् विरचितकर्पूरवी टकसनाथताम्बूलपटलकम्, वर्तितविलेपन पूर्णविविधवातायनन्यस्त वृत्तम् ( वृत्तभाजनम्), सुरभिपटवासभृतमनोहरोपनीत कनक कच्चोलम्, तत्पीतवरवारुणीसुरभिकुसुम सम्पादितमदनपूजम्, रत्येव सपरिवारया नयना - वल्या समध्यासितं वासगेहमिति । उपविष्टः पल्यंके । कञ्चित्कालं गमयित्वा निर्गतो देवीपरिजनः । स्तो वेलायां प्रसुप्ता देवी । अहं च विषयसुखविमुखितचित्तोऽपि स्नेहानुरागतो 'देवी परित्यक्तव्या, एतावन्मात्रमत्र दुष्करम्' इति चिन्तयन् तिष्ठामि यावत् सा देवी 'प्रसुप्तो नरपति:' इति मन्यमाना मुक्त्वा पल्यङ्कमवतीर्णा कुट्टिमतलम् । सशङ्का चोद्घाट्य द्वारं निर्गता वासगृहात् । ततो मया चिन्तितम् - किं पुनरेषाऽवेलायामदत्तद्वारं निर्गतेति ? नूनं मम भाविवियोग कातरा देहत्यागं व्यव - सास्यतीति । ततोऽहं गृहीत्वाऽसिवरं निर्गतस्तस्याः पृष्ठतः । गता च सा प्रासादपालस्य कुब्जकस्य था, सरल मूंगे के तामिया रंग के बनाये हुए पलंग से युक्त था, जिसके अन्दर उत्कृष्ट रुई बिछायी गयी थी ऐसा गद्दा बिछा हुआ था, स्वच्छ चांदी से निर्मित मनोहर पीकदान पास में रखा था, सुगन्धित फूलों की मालाओं का समूह लटकाया गया था, स्वर्णनिर्मित धूपदानी धूम फैला रही थी, अनेक प्रकार के धुएँ का समूह जलाया गया था, चंचल राजहंस और कबूतरों के जोड़े से सुशोभित था, पान का डिब्बा कपूर डाले हुए बीड़े के साथ था, अंजन और विलेपन से भरे हुए गोल पात्र अनेक प्रकार की खिड़कियों में रखे हुए थे, कपड़ा बासने के सुगन्धित द्रव्य से भरा हुआ सोने का प्याला समीप में रखा था । श्रेष्ठ मदिरा को पीकर सुगन्धित फूलों से, जिसने कामदेव की पूजा की थी, ऐसी सपरिवार रति के समान नयनावली से अधिष्ठित था । ( वह) पलंग पर बैठ गया । कुछ समय बिताकर महारानी के निकटवर्ती जन निकल गये। थोड़ी ही देर में महारानी सो गयी। मैं विषय-सुख से विमुख चित्त वाला होने पर भी स्नेह और अनुराग से 'महारानी को छोड़ना पड़ेगा, केवल यही कठिन कार्य है' ऐसा जब सोच रहा था तभी वह महारानी 'राजा सो गये हैं' - ऐसा मानती हुई पलंग से फर्श पर उतरी । शङ्कायुक्त होकर, किवाड़ खोलकर, शयनगृह ( वासगृह) से निकल गयी । तब मैंने सोचा - 'यह इस समय द्वार को बन्द किये बिना क्यों निकल गयी। निश्चित ही मेरे वियोग से दुःखी होकर ( इसने ) शरीर त्याग करने का निश्चय किया होगा । तब मैं तलवार लेकर उसके पीछे-पीछे चल दिया । वह महल- रक्षक (प्रासादपाल ) कुबड़े १. अदिन्नख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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