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________________ २६ [ समराइज्यकहा मैंने उनके प्रति यथार्थ रूप से मित्रता कर ली। यज्ञदेव ने मुझे नष्ट करने का एक उपाय ढूढ़ा। एक बार उसने चन्दन व्यापारी के घर चोरी की और दूसरे दिन चोरी के माल को मेरे पास जमा करने आया। उसने बहाना किया कि यह उसकी निजी सम्पत्ति है और इसे वह अपने पिता की दृष्टि से दूर रखना चाहता है। इस प्रकार मेरा सन्देह शान्त हुआ। उसी समय चन्दन ने चोरी के विषय में राजा को सूचित किया और राजा ने उक्त चोरी के माल की घोषणा करायी कि जिसने भी यह माल चुराया हो उसने अपनी मृत्यु का कार्य किया है। पाँच दिनों बाद यज्ञदेव ने राजा से निवेदन किया कि चक्रदेव के पास चोरी का माल है और उसने अपील की कि हर स्थिति में चक्रदेव के घर की तलाशी होनी चाहिए। राजा ने अनिच्छापूर्वक तलाशी का आदेश दे दिया। सिपाहियों ने चन्दन के एक भण्डारी तथा नगर के पंचों के साथ मेरे घर का निरीक्षण किया। मैंने चोरी गयी सारी सम्पत्ति को मना किया, जिसे कि मेरे मित्र ने रखा था । अनन्तर उन्होंने तलाशी ली और सोने की वस्तुओं को बाहर निकाला। उन पर चन्दन नाम लिखा हुआ था। भण्डारी ने सूची के अनुसार वस्तुओं की पहिचान की और मुझे राजा के सामने ले जाया गया। मैं वहाँ फूटमटकर रोया और उनके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। राजा बहुत पसोपेश में था। उसे मुझ पर आरोपित अपराध पर विश्वास नहीं था। जिस किसी प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर उसने मुझे बाहर निकाल दिया। राजा के अधिकारी मुझे नगर के बाहर ले गये और नगरदेवी के उद्यान के समीप मुझे छोड़ दिया। इस अपमान को सहने में असमर्थ होने के कारण मैंने अपने आपको फाँसी पर चढ़ाने का निश्चय किया, किन्तु देवी ने कृपालुता के कारण अपने आत्मिक प्रभाव से राजा की माँ से कहा कि मेरी रक्षा की जानी चाहिए, क्योंकि मुझे कुछ ज्ञात नहीं है और यज्ञदेव को गिरफ्तार करना चाहिए। राजा शीघ्र ही उस स्थान पर आया और उसने मेरी गांठ को ढीला कर दिया तथा मुझे नगर ले गया। चूकि राजा को यज्ञदेव का सारा वृत्तान्त ज्ञात था, अत: उसने आज्ञा दी कि यज्ञदेव की आँखें बाहर निकाल ली जाये और जीभ काट ली जाय तथा वह अपने अपराध पर मुझसे क्षमा याचना करे। मैने यज्ञदेव की रक्षा के लिए राजा से आग्रह किया: क्योंकि पहले मेरी उसकी मित्रता थी। राजा ने मेरी प्रार्थना मान ली। अपने मित्र का वि घात देखकर मुझे इस संसार से विरक्ति हो गयी। उसी समय अग्निभूति गणधर आये। उनसे मैंने यथार्थज्ञान प्राप्त किया और दीक्षा ले ली। मृत्यु के बाद मैं ब्रह्मलोक में वैमानिक देव हुआ, जब कि मेरा प्रतिद्वन्द्वी शार्क राप्रभा नरक में नारकी हुआ। ___ इसके बाद मैं आयु पूर्ण कर स्वर्गलोक से च्युत, होकर इसी विदेह क्षेत्र के गन्धिलावती देश के रत्नपुर नामक नगर में रत्नसागर सेठ की श्रीमती नामकी पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। दूसरा भी नरक से निकलकर शिकारी का कुत्ता हो र पुनः मरकर तीन सागर की आयु वाले उसी नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से निकलकर तिर्यंच योनियों में भ्रमण कर उसी रत्नपुर नगर में पिता जी की गृहदासी, जिसका नाम नर्मदा था, के पुत्र रूप में आया। उचित समय पर हम दोनों उत्पन्न हुए, बाल्यावस्था को प्राप्त हए। दोनों का नाम रखा गया-- मेरा 'चन्दनसार' और दूसरे का 'अनघक'। दोनों यौवनावस्था को प्राप्त हुए। दोनों ने विवाह किये और इस प्रकार विषयासक्ति में रहे । पूर्वभव के अभ्यासवश मेरे प्रति छल-कपट करने का (इसका) भाव दूर नहीं हुआ था। एक बार जब कि अनघक और मैं दूसरी जगह गये हुए थे और जब कि राजा नगर में नहीं था, शबरों में प्रधान विन्ध्यकेतु ने नगर पर पढ़ाई कर दी और बहुत से लोगों को भगा ले गया, जिनमें मेरी पत्नी भी थी। जब हम वापिस लौटे तब एक ब्राह्मण ने हमें सलाह दी कि शबर भगाये हर व्यक्ति को रखकर उसके उपलक्ष्य में धन चाहते हैं। अत: अनघक और मैं शबरों के डेरे में गये और पत्नी को छुड़ाने के लिए धन तथा खाने की सामग्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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