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________________ प्रमिका ] २५ चलाने के निमित्त नागदेव नामक उद्यान में गये हुए कुमार सिंह ने धर्मघोष नामक आचार्य को देखा। राजकुमार ने उनसे प्रश्न किया कि उन्होंने प्रव्रजित जीवन क्यों स्वीकार किया? उन्होंने वर्णन प्रारम्भ किया जब वह अपरविदेह क्षेत्र की राजपुर नगरी में रहते थे तब एक बार आचार्य अमरगुप्त आये, जिन्हें केवलशान था। राजा उनके पास गया और उनका धर्मोपदेश सुना । एक बार उससे अपने पूर्वजन्मों का वृत्तान्त पूछा, जिसे आचार्य अमरगुप्त ने इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया अमरगुप्त की कथा-इसी देश में चम्पावास नामक नगर है । उसमें मैंने सुधन्वा नामक गृहस्थ और उसकी स्त्री धनश्री से पुत्री के रूप में जन्म लिया और यौवनावस्था प्राप्त होने पर उसी नगर के निवासी नन्द नाम के सार्थवाह (व्यापारी) के पुत्र रुद्रदेव को दी गयो । एक बार बालचन्द्रा नामक गणिनी से मेरा परिचय हुआ और उसके धार्मिक उपदेशों से प्रभावित होकर मैं सांसारिक विषय-भोगों से पराङ्मुख हो गयी। तब मेरा पति रुद्रदेव मुझसे द्वेष करने लगा। उसने नागदेव नामक व्यापारी की पुत्री नागश्री नामक कन्या की मांग की, किन्तु मेरे पिता के प्रति अत्यधिक सम्मान के कारण नागदेव व्यापारी ने उनकी इच्छा पूर्ण नहीं की । रुद्रदेव ने सोचा-इसके जीवित रहते हुए मैं इस कन्या को नहीं पा सकता, अतः मैं इसे मारता है । तब छलपूर्वक किसी भयंकर सर्प को घड़े के अन्दर करके उसे एक कोने में रख दिया। मुझे सौप मे फाट खाया और मैं तुरन्त मृत्यु को प्राप्त हो गयी। रुद्रदेव ने तब नागश्री से विवाह कर लिया और मृत्यु के पाप रत्मप्रभा नरक में जन्म लिया । मैं सौधर्म स्वर्ग के लीलावतंसक विमान में देव हुई। मैं यथावत् आयु पूरी कर वहां से च्युत होकर इसी देश के सुंसुमार नामक पर्वत पर हाथी के रूप में पैदा हुआ और मेरा विरोधी तोता हुआ । एक बार एक विद्याधर दूसरे विद्याधर की पुत्री को हर खाया और वन के निकुंज में छिप गया तथा तोते से प्रार्थना की कि वह उसवा पीछा करने वाले को भेद न थे । इसी बीच हथिनियों से घिरा मैं उस स्थान पर आया। तब मुझे देखकर तोते ने विचार किया, मेरे इष्ट कार्य यह अवसर है। तब छल की बहुलता से अपनी स्त्री से सलाह करते हुए मुझे सुनाई पड़ जाय, इस प्रकार कहा-सुन्दरी ! भगवान् वशिष्ठ महर्षि के पास मैंने सुना है कि इस सुंसुमार पर्वत पर सर्वकामित नाम का पत्तन (गिरने का स्थान) है। जो जिसकी अभिलाषा कर वहाँ से गिरता है, वह उसी क्षण वही वस्तु प्राप्त कर लेता है। तब मैंने पूछा-भगवन् ! वह स्थान कहाँ है ? उसने कहा-इस साल के वृक्ष के बायीं ओर है। यतः यह तियंचगति व्यर्थ है, आओ विद्याधर होवें, ऐसा ध्यान करके वहाँ से कूदें। पत्नी ने यह स्वीकार किया। वे दोनों उस स्थान पर गये, ध्यान दिया, पर्वतीय लतागृह से चल पड़े। कुछ समय बाद मैंने उस विद्याधर युगल को देखा, जो कि वहाँ पर छिपा था। पूरी तरह से छले गये मैंने अपनी पत्नी से बातचीत कर यह निश्चय किया कि हम दोनों चोटी पर ने देव बनने की अभिलाषा लेकर गिरें। गिरने पर मेरे अंगोपांग टूट गये और मैं बड़े कष्ट से मरा और व्यन्तर देव हुमा। मेरा शत्रु तोता मरकर रत्नप्रभा नरक में चला गया। तदनन्तर मैं विदेहक्षेत्र के द्वितीय विजय (देश) में चक्रवालपुर नगर में अप्रतिहतचक्र नामक व्यापारी की सुमंगला नामक पत्नी की कोख में पुत्र के रूप में आया । जन्म होने पर मेरा नाम चक्रदेव रखा गया। मैं बाल्यावस्था को प्राप्त हुआ। इसी बीच वह नरकगामी तोता नरक से निकलकर उसी नगर में सोमशमो नाम के राजा के पुरोहित की नन्दिवर्द्धन नामक पत्नी के गर्भ में पुत्र रूप में आया और कालकम से उत्पन्न हुआ। उसका नाम यज्ञदेव रखा गया। पूर्वजन्म के संस्कारवश उसमें अब भी मेरे प्रति घृणा की भावना थी। उसने मेरे प्रति छल से और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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