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________________ ४० ] [ १.३१७ ध्वजावनि च संवेष्टय हैमी वेदो विराजते। योजनप्रमितोत्तुङ्गा कोशार्धव्याससंयुता ।। ३१७. ततोऽशोकवनं रम्यं सप्तच्छदवनं तथा । चम्पकाख्यवनं चारु चूताभिख्यं वनं महत् ।। ३१८ ते' प्रागारभ्य तिष्ठन्ति प्रादक्षिण्येन तानि च । वनप्रणिधिमध्ये च मानस्तम्भो विभाति च ।। ३१९ संवेष्टय तद्वनं रम्यो रत्नसालो विराजते । चतुर्गापुरसंयुक्तश्चर्याट्टालादिसंयुतः ।। ३२०. योजनानां शतं दीर्घं तदर्धं चापि विस्तृतम् । पञ्चसप्ततिमुद्विद्ध मर्धयोजनगाधकम् ।। ३२१ रमस्याष्ट विस्तारं षोडशोच्छ्रयमुच्यते । तदर्धमाने द्वे चान्ये तनुद्वारे प्रकीर्तिते ।। ३२२ एवमानानि चत्वारि भद्रसाले चतुर्दिशम् । नन्दनेऽपि च चत्वारि भाद्रसालेः २ समानि च ॥ ३२३ सौमनसार्धमानानि पाण्डुकायतनानि च । अर्हदायतनान्येवं सर्वमेरुषु लक्षयेत् ॥ ३२४ विजयार्थेषु सर्वेषु जम्बुशाल्मलिवृक्षयोः । जिनवासप्रमाणानि भारतेन समानि च ।। ३२५ कूटानां पर्वतानां च भवनानां महीरुहाम् । वापीनामपि सर्वासां वेदिका स्थलवद्भवेत् ।। ३२६ WAV लोकविभागः ध्वजाभूमिको वेष्टित करके सुवर्णमय वेदिका विराजती है। इसकी ऊंचाई एक योजन और विस्तार आध कोस प्रमाण होता है ।। ३१७ ।। वेदिकाके आगे रमणीय अशोकवन, सप्तच्छदवन, सुन्दर चम्पक नामक वन तथा आम्र नामक वन; ये चार विशाल वन होते हैं ।। ३१८ ।। वे वन पूर्व दिशाको प्रारम्भ करके प्रदक्षिणक्रमसे स्थित होते हैं । वनके ठीक मध्य में मानस्तम्भ सुशोभित होता है ।। ३१९ ।। उस वनको वेष्टित करके रमणीय रत्नमय प्राकार विराजमान होता है । वह प्राकार चार गोपुरद्वारोंसे संयुक्त तथा चर्यालय एवं अट्टालय आदिकोंसे संयुक्त होता है ॥ ३२० ॥ सौ (१००) योजन लंबा, उससे आधा ( ५० यो. ) विस्तृत, पचत्तर (७५) योजन ऊंचा, और आध योजन मात्र गहराईसे संयुक्त ऐसा जो उत्कृष्ट जिनभवन होता है उसका मुख्य द्वार आठ योजन विस्तीर्ण और सोलह योजन ऊंचा कहा जाता है। उसके अन्य दो लघुद्वार मुख्य द्वारकी अपेक्षा आधे प्रमाणवाले कहे गये हैं । इस प्रकार के प्रमाणवाले चार जिनभवन भद्रसाल वनमें चारों दिशाओं में सुशोभित हैं । भद्रसाल वनमें स्थित इन जिनभवनों के ही समान नन्दन वनमें भी चार जिनभवन विराजमान हैं। सौमनस वनमें स्थित पूर्वोक्त जिनायतनोंकी अपेक्षा आधे प्रमाणवाले पाण्डुक वनके जिनायतन हैं । इसी प्रकार सब ( ५ ) मेरुओंके ऊपर स्थित जिनभवन समझना चाहिये ।। ३२१ - २४ ।। सब विजया और जम्बू एवं शाल्मलि वृक्षों के ऊपर स्थित जिनालयों के प्रमाण भरतक्षेत्रस्थ विजयार्ध आदिके ऊपर स्थित जिना - लयोंके समान है [आयाम १ कोस, विस्तार आधा (३) कोस ऊंचाई पौन ( 3 ) कोस; मुख्य द्वारकी ऊंचाई ३२० धनुष और विस्तार १६० धनुष ] ।। ३२५ कूटों, पर्वतों, भवनों, वृक्षों और सब वापियोंके भी स्थलके समान वेदिका हुआ करती है ।। ३२६ Jain Education International १ आ प 'ते' नास्ति । २ प भद्रसालैः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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