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________________ समाधान ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ हमको यह भी समझना होगा कि आत्मा की जाननक्रिया के साथ ही अन्य गुणों के कार्य, किसप्रकार होते रहते हैं । आत्मा के अनन्त गुणों में महत्वपूर्ण कार्य तो श्रद्धागुण का है। ज्ञान का कार्य तो स्व को स्व के रूप में प्रकाशित कर देना है और पर के कार्य को पर के रूप में बता देना है। श्रद्धागुण ने जिसको भी अपने रूप में स्वीकार कर लिया तब ज्ञान का उपयोग भी उसकी ओर ही सन्मुखता करने लगना । चारित्रगुण का कार्य है लीन होना, अतः श्रद्धा ने जिसको स्व के रूप में स्वीकारा तब चारित्र भी उस ही में तन्मय होने की चेष्टा करने लगता है । सुखगुण का कार्य है, निराकुलतारूप विभुत्व शक्ति का कार्य है अपने आप में व्यापना, कर्तागुण का कार्य है उपरोक्त समस्त गुणों के कार्यों को सम्पन्न करना, भोक्ता गुण का कार्य है उपरोक्त समस्त कार्यों के फल को भोगना अर्थात् वेदन करना, अनुभव करना इत्यादि । इन समस्त गुणों के समन्वित कार्यों का परिचय देने वाला आत्मा का उपयोग है । इसप्रकार अपने आत्मतत्त्व में ही अपनापन स्थापन कर लेने पर आत्मा का उपयोग पुरुषार्थपूर्वक स्व में तन्मय होता है, विभुत्वगुण द्वारा अपने आप में व्यापता है और सफल हो जाता है एवं ज्ञेय परिवर्तन का अभाव होने से आकुलता के कारणों का ही अभाव हो जाता है; अतः अतीव अनाकुल आनन्दरूप सुख प्रगट हो जाता है। उपरोक्त सभी कार्य सहजरूप से निरन्तर होने लगते हैं । उपरोक्त सभी का समन्वित कार्य उपयोग के माध्यम से प्रकाशित (अनुभव) होता रहता है । इसप्रकार स्व में स्वपने की श्रद्धा के साथ आत्मा के सब ही गुण आत्मसन्मुख होकर कार्यशील हो जाते हैं और सभी के कार्यों को ज्ञान जानता है । स्व को जानने वाली ज्ञान की पर्याय निजानन्दरूपी परमशान्ति (सुख) आत्मा को प्रदान करती है। १२६ ) इसप्रकार यह स्पष्ट है कि स्व को जानने में ज्ञान प्रयुक्त होने पर सुख की अनुभूति प्रगट होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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