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________________ सुखी होने का उपाय) (114 सुखी होने का उपाय भाग-१ में हमने विश्व की व्यवस्था एवं वस्तु व्यवस्था समझकर यह निर्णय किया है कि इस लोक में छह जाति के अनंत द्रव्य है। उन सबका स्वतंत्र अस्तित्त्व है। उनमें से मैं भी एक द्रव्य हूँ, उन सबका अस्तित्त्व तो है लेकिन मेरे से भिन्न होने से वे मेरे से पर हैं। वे अपने-अपने क्षेत्र में रहते हुए परिणमते हैं। मैं भी अपने-आप में रहता हुआ अपने में ही परिणमन करता रहता हूँ। मेरे कार्य में वे हस्तक्षेप नहीं कर सकते, उसीप्रकार मैं भी उनके कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। ऐसी मान्यता खड़ी होने पर अनेक द्रव्यों के साथ परपना आ जाने से कर्तृत्वबुद्धि का अभाव हो जाता है। इसप्रकार पर के प्रति प्रमाणरूप भेदभाव हो जाता है। सारे जगत् के कर्तृत्व के भार से हल्का हो जाता है। इसी भाग के द्वारा हमने यह भी समझा कि हर एक वस्तु का स्वभाव, अपने स्वभावरूप परिणमने का ही है। कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव को छोड़कर अन्य भावरूप परिणमन कर सकता ही नहीं हैं। मैं भी एक द्रव्य हूँ, मेरा भी स्वभाव अपने स्वभावरूप परिणमने का ही है। मेरा स्वभाव तो मात्र जानना ही है। अतः मेरा आत्मा तो जाननेरूप क्रिया का कर्ता है अर्थात् ज्ञायक है। क्रोधादि विभाव तो विभावभाव हैं, इसही कारण वे स्थाई रहते नहीं। ज्ञान तो स्वाभाविक भाव है, इसलिये कहीं किसी भी दशा में हो, नाश हो ही नहीं सकता। इसप्रकार प्रमाणरूप भेदज्ञान की प्रक्रिया समझी। उपरोक्त प्रकार से छह द्रव्यों से अपने-आपको भिन्न ज्ञायक स्वभावी समझकर सभी में परपना मानकर, जाग्रत हो जाता है। उसके पश्चात् अपने आत्मा की अन्तर्दशा समझने की चेष्टा करता है। अपने अंतर में भी गुणभेदों की अनेकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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