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________________ 10 गणधरवाद [ गणधर सकती / अपितु हिमालय का परिमाण कितना है, यह बात हम किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं कर सकते। इसी प्रकार पिशाच आदि के विषय में भी हमारा कोई प्रमाण प्रवृत्त नहीं होता तथापि हिमालय के परिमाण और पिशाच का अभाव सिद्ध नहीं होता। इसी प्रकार आत्मा में प्रत्यक्ष प्रादि किसी प्रमाण की प्रवृत्ति न हो, तो भी उसका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए तुम्हारा हेतु व्यभिचारी भी है। आगे प्रात्मा का साधक अनुमान प्रतिपादित किया जाएगा, उससे आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है / अतः तुम्हारा हेतु विपक्ष वृत्ति होने के कारण विरुद्ध भी है। इसलिए तुन्हें आत्मा के अस्तित्व के विषय में सन्देह नहीं करना चाहिए किन्तु, उसका प्रत्यक्ष से निश्चय ही करना चाहिए। [1557] इन्द्रभूति—'अात्मा प्रत्यक्ष है' इस बात को अनुमान से सिद्ध करें। गुरगों के प्रत्यक्ष से आत्मा का प्रत्यक्ष भगवान्-अात्मा प्रत्यक्ष है, क्योंकि उसके स्मरणादि विज्ञानरूप गुण स्वसंवेदन द्वारा प्रत्यक्ष हैं। जिस गुरणी के गुण प्रत्यक्ष होते हैं, वह गुरणी भी प्रत्यक्ष होता है; जैसे घट / जीव के गुण भी प्रत्यक्ष हैं, अतः जीव भी प्रत्यक्ष है। घटादि के प्रत्यक्ष का आधार उसके रूंपादि गुण हैं। उसी प्रकार जीव का प्रत्यक्ष भी उसके स्मरणादि गुणों की प्रत्यक्षता के कारण मानना ही चाहिए। इन्द्रभूति-गुरणों की प्रत्यक्षता के कारण गुणी की प्रत्यक्षता मानने का नियम व्यभिचारी है, क्योंकि आकाश का गुण शब्द तो प्रत्यक्ष है, परन्तु आकाश प्रत्यक्ष नहीं होता। भगवान्-उक्त नियम व्यभिचारी नहीं है, क्योंकि शब्द आकाश का गुण न हो कर पौद्गलिक है / अर्थात् शब्द पुद्गल द्रव्य का एक परिणाम है। इन्द्रभूति-आप शब्द को पौद्गलिक किस आधार पर कहते हैं ? शब्द पौद्गलिक है भगवान्-क्योंकि यह इन्द्रिय का विषय है। जैसे रूपादि चक्षुग्राह्य होने के कारण पौद्गलिक हैं, उसी प्रकार शब्द भी श्रवणेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होने के कारण पौद्गलिक है। [1558] . इन्द्रभूति-गुण प्रत्यक्ष हो तो उसे आप भले ही प्रत्यक्ष मान लें, किन्तु इससे गुणी का क्या सम्बन्ध है ? गुण-गुरणी का भेदभाव भगवान्--गुणी का सम्बन्ध क्यों नहीं ? मैं तुम्हें पूछता हूँ कि गुण गुणी से भिन्न है अथवा अभिन्न ? इन्द्रभूति-यदि गुण को गुणी से अभिन्न माना जाए तो ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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