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________________ अध्र व-अनुप्रेक्षा मैं द्रव्यरूपसे नित्य जीवद्रव्य हैं, उत्पन्न होती है तथा नाश होती है यह पर्यायका स्वभाव है, इसमें हर्ष विषाद कैसा ? यह शरीर, जीव पुद्गलकी संयोगजनित पर्याय है। धन धान्यादिक, पुद्गलपरमाणुओंकी स्कन्धपर्याय हैं। इनके संयोग और वियोग नियमसे अवश्य है, स्थिरताकी बुद्धि करता है सो मोहजनित भाव है इसलिये वस्तुस्वरूपको समझकर हर्ष विषादादिकरूप नहीं होना चाहिए। आगे इसहीको विशेषरूपसे कहते हैं: जम्मं मरणेण समं, संपज्जइ जोव्वणं जरासहियं । लच्छी विणास सहिया, इय सव्वं भंगुरं मुणह ॥५॥ अन्वयार्थः-[ जम्मं मरणेण समं] यह जन्म है सो मरण सहित है [ जवणं जरासहियं संपजइ ] यौवन है सो जरा सहित उत्पन्न होता है [ लच्छी विणाससहिया ] लक्ष्मी है सो विनाश सहित उत्पन्न होती है [ इयसव्वं भंगुरं मुणह ] इसप्रकारसे सब वस्तुओंको क्षणभंगुर जानो। भावार्थ:-जितनी अवस्थायें संसार में हैं वे सब ही विरोधी भावको लिये हुए हैं । यह प्राणी जन्म होता है तब उसको स्थिर मानकर हर्ष करता है, मरण होनेपर नाश मानकर शोक करता है। इसीप्रकारसे इष्ट की प्राप्तिमें हर्ष, अप्राप्तिमें विषाद तथा अनिष्टकी प्राप्तिमें विषाद, अप्राप्तिमें हर्ष करता है सो यह मोहका माहात्म्य है । ( नित्य पूर्ण ज्ञायकभावके आलम्बनके बल द्वारा ) ज्ञानियोंको समभावरूपसे रहना चाहिये। अथिरं परियण-सयणं, पुत्त-कलत्तं सुमित्त-लावण्णं । गिह-गोहणाइ सव्वं, णव-घण-विंदण सारिच्छं ॥६॥ अन्वयार्थः-[परियणसयणं] परिवार, बन्धुवर्ग [ पुत्तकल] पुत्र, स्त्री [ सुमित्त ] अच्छे मित्र [ लावण्णं ] शरीरको सुन्दरता [ गिहगोहणाइ सव्वं ] गृह गोधन इत्यादि समस्त वस्तुएं [ णवघणविदेण सारिच्छं ] नवीन मेघके समूहके समान [अथिरं] अस्थिर हैं। भावार्थ:-ये सबही वस्तुएं नाशवान् जानकर (नित्य ज्ञानस्वभावमेंही एकत्व द्वारा) हर्षविषाद नहीं करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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