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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा गई हैं [ इय जाणिऊण ] इन्हें जानकर [ मणवयणकायसुद्धी ] मनवचनकाय शुद्ध कर [णिच्चं ] निरन्तर [ भावह ] भावो। भावार्थ:-ये बारह भावनाओंके नाम कहे गये हैं, इनका विशेष अर्थरूप कथन तो यथास्थान होगा ही परन्तु ये नाम भी सार्थक हैं, इनका अर्थ किस प्रकार है ? –अध्र व तो अनित्यको कहते हैं। जहां कोई शरण नहीं सो अशरण । भ्रमणको संसार । जहां कोई दूसरा नहीं सो एकत्व । जहां सबसे भिन्नता सो अन्यत्व । मलिनताको अशुचित्व । कर्मके आनेको आस्रव । कर्मके आनेको रोके सो संवर । कर्मका झरना सो निर्जरा। जिसमें छह द्रव्य पाये जांय सो लोक । अतिकठिनतासे प्राप्त होय सो दुर्लभ । संसारसे उद्धार करे सो वस्तुस्वरूपादिकधर्म । इसप्रकार इनका अर्थ है । अध्र व-अनुप्रेक्षा पहले अध्रुव अनुप्रेक्षाका सामान्य स्वरूप कहते हैं: जं किंचिवि उप्पण्णं, तस्स विणासो हवेइ णियमेण । परिणामसरूवेण वि, ण य किंचि वि सासयं अस्थि ॥४॥ अन्वयार्थः-[ जं किंचिवि उप्पण्णं ] जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है [ तस्स णियमेण विणासो हवेइ ] उसका नियमसे नाश होता है [ परिणामसरूवेणवि ] परिणामस्वरूपसे तो [ किंचिवि सासयं ण अस्थि ] कुछ भी नित्य नहीं है । भावार्थ:-सब वस्तुए सामान्य विशेषस्वरूप हैं। सामान्य तो द्रव्यको और विशेष गुणपर्यायको कहते हैं सो द्रव्यरूपसे तो वस्तु नित्य ही है तथा गुण भी नित्य ही है और पर्याय है बह अनित्य है इसको परिणाम भी कहते हैं; यह प्राणी पर्यायबुद्धि है सो पर्यायको उत्पन्न होते व नष्ट होते देखकर हर्ष विषाद करता है तथा उसको नित्य रखना चाहता है इसप्रकारके अज्ञानसे दुखी होता है उसको इस भावनाका चितवन इसप्रकार करना योग्य है कि: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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