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________________ प्रथम अध्याय - सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्त्वैश्च॥ अर्थ- (च) और सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगों के द्वारा भी पदार्थका ज्ञान ( भवति) होता हैं। सत्- वस्तुके अस्तित्वको सत् कहते हैं। संख्या -वस्तुके परिणामोंकी गिनतीको संख्या कहते हैं। क्षेत्र- वस्तुके वर्तमान कालके निवासको क्षेत्र कहते हैं। स्पर्शन- वस्तुके तीनों काल संबंधी निवासको स्पर्शन कहते है। काल- वस्तुके ठहरनेकी मर्यादाको काल कहते हैं। अन्तर- वस्तुके विरहकालको अन्तर कहते हैं। भाव- औपशमिक, क्षायिक आदि परिणामोंको भाव कहते हैं। अल्पबहुत्व- अन्य पदार्थकी अपेक्षा किसी वस्तुकी हीनाधिकता वर्णन करनेको अल्पबहुत्व कहते हैं। अधिकरण-अधिकरणके दो भेद है । १. आभ्यंतर और २. बाह्य सम्यग्दर्शनका आभ्यन्तर अधिकरण आत्मा है और बाह्य अधिकरण एकरज्जु चौड़ी और चौदह रज्जु लम्बी त्रसनाडी है। विधान- सम्यग्दर्शनके तीन भेद है । १. औपशमिक, २. क्षायोपशमिक. और ३. क्षायिक। स्थिति- तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहृतं है तथा औपशमिक सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति भी अंतर्मुहूर्त है। क्षायोपशमिकको उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर और क्षायिकको संसारमें रहनेकी उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागर तथा अंतमहतं सहित. आठ वर्ष कम दो कोटिवर्ष पूर्वकी है।। इसी तरह सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र तथा जीव आदि तत्वोंका भी वर्णन यथायोग्य रूपसे लगा लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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