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________________ अष्टम अध्याय [१३३ आदि ४, किसीके प्रमाद आदि ३, किसीके कषाय आदि २ और किसीके सिर्फ एक योग ही बन्धका कारण है ॥१॥ बन्धका लक्षणसकषायत्वाज्जीवःकर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः ॥२॥ अर्थ-( जीवः) जीव (सकषायत्वात् ) कषाय सहित होनेसे ( कर्मणः ) कर्मके ( योग्यान् ) योग्य (पुद्गलान् ) कार्मण वर्गणारूप पुद्गल परमाणुओंको जो [आदते ] ग्रहण करता है [स:] वह [बन्धः ] है। भावार्थ- सम्पूर्ण लोकमें कार्मण वर्गणारूप पुद्गल भरे हुए है। कषायके निमित्तसे उनका आत्माके साथ सम्बन्ध हो जाता है यही बन्ध कहलाता है। नोट- इस सत्रमें 'कर्मयोग्यान' ऐसा समास न करके जो अलग अलग ग्रहण किया है उससे सूत्रका यह अर्थ भी निकलता है कि- "जीव कर्मसे सकषाय होता है और सकषाय होनेसे कर्म-रुप पुद्गलोंको ग्रहण करता हैं, यही बन्ध कहलाता है'' ॥२॥ बन्धके भेदप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः॥३॥ अर्थ- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ये बन्धके चार भेद हैं। प्रकृतिबन्ध- कर्मोके स्वभावको प्रकृतिबन्ध कहते हैं। स्थितिबन्ध- ज्ञानावरणादि कर्मोका अपने स्वभावसे च्युत नहीं होना सो स्थितिबन्ध है। अनुभागबन्ध- ज्ञानावरणादि कर्मोके रसविशेषको अनुभागबन्ध कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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