SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 571
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयविचार द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नयों के मन्तव्यों का स्पष्ट प्रतिपादन करते हुए 'सम्मति - तर्क' में कहा है : उप्पज्जेति वियंति य भावा नियमेण पज्जवणयस्स । दव्वयिस्स सव्वं सया अणुप्पन्नमविण ॥२१॥ पर्यायार्थिक नय का मंतव्य है कि सर्व भाव उत्पन्न होते हैं और नाश होते हैं अर्थात् प्रतिक्षण भाव उत्पाद - विनाश के स्वभाव वाले हैं । द्रव्यार्थिक नय कहता है कि सब वस्तुएं अनुत्पन्न - अविनिष्ट हैं अर्थात् प्रत्येक भाव स्थिर स्वभाव वाला है । द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद हैं- ( १ ) नैगम ( २ ) संग्रह और ( ३ ) व्यवहार । पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं (१) ऋजुसूत्र ( २ ) शब्द ( ३ ) समभिरूढ़ ( ४ ) एवंभूत | ३५ श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ऋजुसूत्र नय को द्रव्यार्थिक नय का भेद कहते हैं । नैगम सामान्य विशेषादि अनेक धर्मों को यह नय मान्यता देता है अर्थात् 'सत्ता' लक्षण महासामान्य, अवान्तर सामान्य - द्रव्यत्व - गुणत्व- कर्मत्व वगैरह तथा समस्त विशेषों को यह नय मानता है । 'सामान्य विशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसाय नैगमः' - जैन तर्कभाषा यह नय अपने मन्तव्य को पुष्ट करते हुए कहता है :'यद्यथाऽवभासते तत्तथाऽभ्युपगन्तव्यम् यथा नीलं नीलतया ।' जो जैसा दिखाई दे उसे वैसा मानना चाहिये । नीले को नीला तथा पीले को पीला । धर्मी और धर्म को एकान्त रुप से भिन्न मानने पर यह नय मिथ्यादृष्टि है अर्थात् नैगमाभास है । न्याय दर्शन तथा वैशेषिक दर्शन धर्मीधर्म को एकान्त भिन्न मानते हैं । संग्रह 'सामान्यप्रतिपादनपर: संग्रह नयः' यह नय कहता है समान्य ही एक तात्त्विक है, विशेष नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy