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________________ ३४ तम्हा सव्वे पि मिच्छादिट्ठी सपक्खपड़िबद्धा । अण्णोष्णणिस्सिया उण हवन्ति सम्मत्तसम्भावा ।। २१ ।। 'स्वपक्षप्रतिबद्ध सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं । अन्योन्य सापेक्ष सभी नय समकित दृष्टि हैं ।' * दृष्टान्त द्वारा उपरोक्त कथन को समझाते हुए उन्होंने कहा है ज्ञानसार जहणे लक्खणगुणा वेरुलियाईमणी विसंजुत्ता । रयणाबलिववएस न लहंति महग्घमुल्ला वि ।। २२ ।। तह णिययवायसुविणिच्छिया वि अण्णोष्णपक्ख निरवेक्खा | सम्म सणसद्द सव्वे वि णया ण पार्वति ।। २३ ॥ 'जिस प्रकार विविध लक्षणों से युक्त वैडूर्यादि मणि महान् कीमती होने पर भी, अलग-अलग हो वहाँ तक 'रत्नावलि' नाम प्राप्त नहीं कर सकते, उसी तरह नय भी स्वविषय का प्रतिपादन करने में सुनिश्चित होने पर भी, जब तक अन्योन्यनिरपेक्ष प्रतिपादन करे वहां तक 'सम्यग् - दर्शन' नाम प्राप्त नहीं कर सकते, अर्थात् सुनय नहीं कहलाते । द्रव्याथिक नय पर्यायार्थिक नय प्रत्येक वस्तु के मुख्यरूप से दो अंश होते हैं ( १ ) द्रव्य और ( २ ) पर्याय । वस्तु को जो द्रव्यरुप से ही जाने वह द्रव्यार्थिक नय और जो वस्तु को पर्यायरूप से ही जाने वह पर्यायार्थिक नय कहलाता है । मुख्य तो ये दो ही नय हैं । नैगमादि नय इन दोनों के विकल्प हैं । भगवंत तीर्थंकरदेव के वचनों के मुख्य प्रवक्ता रुप में ये दो नय प्रसिद्ध हैं । 'सम्मति तर्क' में कहा है । तित्थयरवयणसंगह विसेसपत्थारमूलवागरणी । दवट्ठिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पासि || ३ || तीर्थंकर वचन के विषयभूत ( अभिधेयभूत) द्रव्य - पर्याय है । उनका संग्रहादि नयों द्वारा जो विस्तार किया जाता है, उनके मूल वक्ता द्रव्याfre और पर्यायार्थिक नय हैं । नैगमादि नय उनके विकल्प हैं; भेद हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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