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________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा षट्खण्डागम में गुणस्थान को जीवसमास भी कहा गया है । जैनदर्शन में जीव के उर्ध्वगामी विकासक्रम को गुणस्थान के नाम से व्याख्यात किया गया है । ५४ मोह और योग के कारण जीव के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण होनेवाले उतार-चढ़ाव को गुणस्थान कहा गया है। कर्मों का उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम ही गुणस्थानों का प्रमुख कारण है। दूसरे शब्दों में कर्मों के निमित्त आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र गुण के विकास -हास की गुणश्रेणियाँ ही गुणस्थान हैं । यह गुणस्थान शब्द दो शब्दों से बना है : गुण + स्थान । गुण का अर्थ ज्ञान, दर्शन और चारित्र से है और स्थान का अभिप्राय अवस्था, स्थिति, श्रेणीविशेष से है । जीवात्मा की अशुद्धतम अवस्था के परिहार से लेकर शुद्धात्मदशा अर्थात् मुक्तावस्था तक की विकास भूमिकाएँ गुणस्थान हैं । जैनदर्शन में गुणस्थानों को चौदह भागों में विभाजित किया गया है। आत्मा उत्तरोत्तर निर्मल होकर आध्यात्मिक दृष्टि से विकास करती है। गुणस्थान आत्मा के मूलगुण अर्थात् स्वस्वभाव के कर्मों से आवृत्त होने या उसकी विशुद्धि की विभिन्न स्थितियां हैं ।" आध्यात्मिक विकास की इन अवस्थाओं से आगे बढ़ते-बढ़ते विकास की उच्चतमदशा अर्थात् मोक्ष तक पहुँचने का बहुत ही सूक्ष्म, मार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण इस गुणस्थान सिद्धान्त के अन्तर्गत किया गया है। चौदहवां गुणस्थान आत्मा की पूर्णतः शुद्धावस्था है । वहाँ आत्मा शाश्वत, अनन्त, अशेष, परम आनन्द और शान्ति को उपलब्ध कर लेती है । ६ जैनदर्शन में निम्न चौदह गुणस्थान स्वीकार किए गए हैं : ३८० १. मिथ्यादृष्टि; ३. मिश्र; ५. देशविरत; ७. अप्रमत्तसंयत; ६. अनिवृत्तिबादर; ११. उपशान्तमोह; १३. सयोगीकेवली; और ५४ जैनदर्शन, पृ. ४६३ । ५५ मूलाचार (उत्तरार्ध) गा. ६४२ । ५६ गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) गा. ६-१० । Jain Education International २. सास्वादन (सम्यग्दृष्टि); ४. अविरत सम्यग्दृष्टि; ६. प्रमत्तसंयत; ८. निवृत्तिबादर (अपूर्वकरण); १०. सूक्ष्मसम्पराय; १२. क्षीणमोह; १४. अयोगीकेवली । For Private & Personal Use Only - मोहनलाल मेहता | www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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