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________________ अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार २४६ के परिणामस्वरूप आत्मबोध को प्राप्त करती है। जिन ज्ञानियों ने देह और आत्मा का भेदज्ञान अर्थात् अन्तरात्मा को देह से भिन्न समझ लिया है, उन्होंने अपने परमात्मस्वरूप को ही जान लिया है। वे लिखते हैं कि जब आत्मस्वरूप की यथार्थ रूप से पहचान होती है, तब सर्वप्रथम दर्शनमोह चला जाता है एवं सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। सम्यक्त्व की प्राप्ति से चारित्रमोह का वर्चस्व स्वतः ही घट जाता है। उस समय अन्तरात्मा अपने शुद्धस्वरूप का ध्यान करती है।२८ विक्षेपों को उत्पन्न करने वाले अनेक निमित्त या भयंकर परीषह आने पर भी वह न तो घबराती है और न ही उसकी आत्म-निर्भरता टूटती है। वह न तो संकल्प-विकल्प करती है और न ही हर्ष विषाद करती है, अपितु स्वस्वरूप में निमग्न रहती हुई निर्विकल्प दशा को प्राप्त करती है।२६ अन्तरात्मा मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को आत्म-उपयोगयुक्त करती है। वह शुद्ध-स्वरूपी आत्मा को साध्य बनाकर जिनाज्ञानुसार अपना उपयोग बाह्य विषयों में न लगाकर अन्तरात्मा में लगाती है। वह निज शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थिर होती है।३० श्रीमद् राजचन्द्रजी अन्तरात्मा का विवेचन करते हुए लिखते हैं : हे प्रभु! मुझे ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा जब मैं बाह्य एवं आभ्यन्तर ग्रन्थिभेद करूंगा अर्थात् धन-धान्य आदि बाह्य विषयों तथा अभ्यान्तर मिथ्यामान्यता, वासना, कषायादि से मुक्त होउँगा। इस प्रकार अन्तरात्मा सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र रूप मोक्षपथ का वरण करती है। वस्तु का स्वरूप जैसा है, उसे वैसा जानकर वह उसमें स्थिर होती है।३१ अन्तरात्मा जगत के सर्व पदार्थों के प्रति उदासीन होती है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखती है। वह देह को १२८ 'दर्शनमोह व्यतीत थई उपज्यो बोधजे देहभिन्न केवल चैतन्यनुं ज्ञान जो; तेथी प्रक्षीण चारित्र मोह विलोकिये, वर्ते एवं शुद्ध स्वरूपनुं ध्यान जो ।।३।।'-अपूर्वअवसर । 'आत्मस्थिरता त्रण संक्षिप्त योगनी, मुख्यपले तो वर्ते देहपर्यन्त जो घोर परिषह के उपसर्ग भये करी, आवी शके नहीं ते स्थिरतानो अंत जों ।। ४ ।।' -वही । 'संयमना हेतुथी योगप्रवर्तना, स्वरूपलक्षं जिनआज्ञा आधीन जो; ने पण क्षण-क्षण घटती जाती स्थितिमां अंते थाय निज स्वरूपमा लीन जो ।। ५ ।।' ____-अपूर्वअवसर । 'अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे? क्यारे थईशुं बाह्याभ्यन्तर निग्रंथ जो; सर्व संबंधनुं बंधन तीक्ष्ण छेदीने, विचनपुं देवचन्द्रजी महत्पुरूषने पंथ जो ।। १ ।।' -वही । १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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