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________________ २४८ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा अन्तरात्मा को जाग्रत करते हुए रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए प्रेरणा देते हैं। जो आत्मा बाह्यदशा का त्याग कर अन्तर आत्मा में रमण करती है, वही अन्तरात्मा है। ४.२.१३ श्रीमद् राजचन्द्रजी के अनुसार अन्तरात्मा श्रीमद् राजचन्द्रजी 'श्रीसद्गुरूभक्तिरहस्य' में अन्तरात्मा की आत्म-पीड़ा की विवेचना करते हए लिखते हैं कि हे प्रभु! मैं अनन्तकाल से अज्ञानतावश संसार में परिभ्रमण कर रहा हूँ, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। मैं कर्मों के अधीन होकर जन्म-मरण के जाल में उलझकर दुःखी हो रहा हूँ। फिर भी मुझे सत-स्वरूप का भान नहीं हुआ अर्थात् उस शुद्धस्वरूपी परमात्मा की मैंने अभी तक पहचान नहीं की एवं समकितरूपी बोधि-बीज को भी प्राप्त नहीं किया। ज्ञानी पुरुषों की आज्ञानुसार मैंने निज स्वरूप को पाने हेतु प्रयत्न भी नहीं किया। न मुझे वैराग्य हुआ और न ही पर को अपना मानने का अहंकार छूटा।२६ ___ अन्तरात्मा यह चिन्तन करती है कि ज्ञानी सन्त जिन्होंने मुझे बोध देकर ज्ञान प्राप्ति का मार्गदर्शन कराया, उनकी सेवा भी मैंने पूर्ण समर्पणभाव से नहीं की अर्थात् गुरू सेवा से मैं वंचित रहा। वे आगे लिखते हैं - "हे प्रभु! मैं बार-बार तुम से यही प्रार्थना करता हूँ कि सद्गुरू सन्त एवं परमात्मा में मेरी अटूट दृढ़ श्रद्धा हो, आप दोनों में मैं किसी प्रकार का भेद ही नहीं मानूं। जो आत्मज्ञानी सद्गुरू हैं, वे ही परमात्मस्वरूप हैं। मैं निशंकभाव से उनकी शरण में रहूं।" ऐसे सद्गुरू के चरणों की सेवा से ही परमात्मपद की प्राप्ति सम्भव होती है। पुनः अन्तरात्मा यह भी चिन्तन करती है कि हे प्रभु! शुद्ध परमात्मस्वरूप में मेरी दृढ़ श्रद्धा हो।२७ श्रीमद् राजचन्द्रजी लिखते हैं कि अन्तरात्मा सद्गुरू की भक्ति १२६ 'अनन्त कालथी आथड्यो, विना भान भगवान । सेव्या न - हि गुरू सन्तने, मूक्यूं नहि अभिमान ।। १५ ।।' ‘पडी-पडी तुज पदपंकजे, मांगु ओ ज । सद्गुरू संत स्वरूप तुज, ओ दृढ़ता करी दे ज ।। २० ।।' -श्रीसद्गुरूभक्तिरहस्य । ૧૨૭ -वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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