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________________ २१६ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा कर्मों की निर्जरा करती है। वह शरीर को भी मोह का कारण और अपवित्र मानती है। सदैव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की साधना२६ और अपने निर्मल व शुद्ध स्वरूप का ध्यान करते हुए कर्मों की निर्जरा करती है। स्वामी कार्तिकेय आगे अन्तरात्मा के द्वारा की जाने वाली निर्जरा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो मुनि निर्जरा के कारण तप, संयम आदि में प्रवृत्ति करता हो उसी के मिथ्यात्वादि पापों की निर्जरा होती है और पुण्यकर्म का अनुभाग बढ़ता है। वह अन्त में निज शुद्धात्मा अथवा उत्कृष्ट सुखरूप मोक्ष की प्राप्ति करती है; क्योंकि जो अन्तरात्मा इन्द्रियों और कषायों का निग्रह करके आत्मध्यान में लीन होती है, वही उत्कृष्ट निर्जरा के द्वारा परम वीतरागदशा अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करती है। २५ २८ 'वारसविहेण तवसा, णियाणरहियस्स णिज्ज्ा होदि । वेयग्गभावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स ।। १०२ ।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (लोकानुप्रेक्षा)। 'रयणत्तयसंजुत्तो, जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं । संसारं तरइ जदो रयणत्तय-दिव्वणावाए ।। १६१ ॥' -वही। (क) 'सब्वेसि कम्माणं, सत्तिविवाओ हवेइ अणुभाओ। तदणंतरं तु सडणं, कम्माणं निज्जरा जाण ।। १०३ ।।' -वही। (ख) 'सा पुण दुविहा णेया, सकालपत्ता तवेण कयमाणा । ___ चादुगदीणं पढमा, वयजुत्ताणं हवे बिदिया ।। १०४।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (निर्जरानुप्रेक्षा) । (क) 'उवसमभावतवाणं, जह जह वड्ढी, हवेइ साहूणं । तह तह णिज्जर वड्ढी, विसेसदो धम्मसुक्कादो ।। १०५ ।।' (ख) 'जो चिंतेइ सरीरं, ममत्तजणयं विणस्सरं असुइ । दसणणाणचरितं, सुहजणयं णिम्मलं णिच्वं ।। १११ ।।' -वही । (ग) 'अप्पाणं जो जिंदइ गुणवंताणं करेदि बहुमाणं । ___ मणइंदियाण विजई, स सरूवपरायणो होउ ।। ११२ ।।' -वही । 'तस्स य सहलो जम्मो, तस्स वि पावस्स णिज्जरा होदि । तस्स वि पुण्णं वड्ढदि, तस्स वि सोक्खं परं होदि ।। ११३ ।।' -वही । 'जो समसोक्खणिलीणो, वारंवारं सरेइ अप्पाणं । इंदियकसायविजई, तस्स हवे णिज्जरा परमा ।। ११४।।' -वही । -वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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