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________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा आत्मबुद्धि का त्याग करके मात्र साक्षीभाव से उनका अनुभव करती है और उनके निमित्त से अपनी चेतना को विकारी नहीं होने देती, वह अन्तरात्मा है । वह संसार में रहकर भी उसमें आसक्त नहीं होती है। उसकी रुचि बाह्य पदार्थों में न होकर आत्मा के शुद्धस्वरूप की अनुभूति में होती है। ऐसी साधक आत्मा ही अन्तरात्मा कहलाती है । परमात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि जो राग-द्वेष एवं मोहजन्य शल्य उपाधियों से मुक्त है और सकल कर्मों का क्षय हो जाने के कारण जिसका अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य प्रकट हो गया है ऐसे अनन्तचतुष्टय से युक्त आत्मा परमात्मा कही जाती है। इन त्रिविध आत्माओं के सम्बन्ध में आनन्दघनजी का निर्देश है कि बहिरात्मा का त्याग करके अन्तरात्मा के द्वारा परमात्मपद की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करना चाहिये । ७ १६४ २.४.१२ भैया भगवतीदास, धानतराय, यशोविजयजी आदि के ग्रन्थों में त्रिविध आत्मा (क) भैया भगवतीदास के ब्रह्मविलास में त्रिविध आत्मा आनन्दघन के समकालीन चिन्तकों में भैया भगवतीदास ब्रह्म-विलास में लिखते हैं : “हे चेतना ! तू एक होते हुए भी तेरे तीन प्रकार हैं अर्थात् बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । ये तीनों पर्यायें तेरे में समाहित हैं । कभी तू बाह्य में (विभावदशा) पर-पदार्थों के आकर्षण के कारण अपने शुद्धात्म-स्वरूप को भूलकर पौद्गलिक पर भावों में भटकने लगती है तब चेतना विभावदशा में रमण करने के कारण बहिरात्मा कहलाती है । जब आत्मा बाह्यदशा से ऊपर उठ जाती है अर्थात् सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र में पुरुषार्थ करती है एवं व्रत नियम, संयम का पालन करती हुई संसार दशा से विरक्त हो जाती है, तब ७७ 'त्रिविध सकल तनु धरगत आत्मा, बहिरात्म धूरी भेद । बीजो अन्तर आत्मा तिसरो परमात्म अविच्छेद सुज्ञानी ।। ५ ।। ' Jain Education International -आनन्दघन ग्रन्थावली, सुमति जिन स्तवन १ । www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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