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________________ औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ १६३ सौ है समकित सूर आनंद-अंकूर ताहि, निरखि बनारसी नमो नमो कहतु है।। २।।' - समयसार नाटक बंधद्वार। (३) परमात्मा 'जैसौ निरभेदरूप निहचै अतीत हुतौ, तैसौ निरभेद अब भेद कौन कहेगी। दीसै कर्म रहित सहित सुख समाधान, पायौ निजस्थान फिर बाहरि न बहैगौ।। कबहूं कदाचि अपनौ सुभाव त्यागिकरि, रागरस राचिकैं न पर वस्तु गहैगौ। अमलान ग्यान विद्यमान परगट भयौ, याही भांति आगम अनंत काल रहैगौ।। १०८ ।।'' __ -समयसार नाटक सर्वविशुद्धिद्वार। इस प्रकार बनारसीदासजी ने प्रकारान्तर से त्रिविध आत्मा का उल्लेख किया है। २.४.११ आनन्दघनजी की कृतियों में त्रिविध आत्मा के उल्लेख आनन्दघनजी ने राग की उपस्थिति के आधार पर आत्मा की इन तीन अवस्थाओं का चित्रण किया है। जो आत्मा मोह और क्षोभ से पूरी तरह अनुरंजित है वह बहिरात्मा है। जो आत्मा मोह और क्षोभ से ऊपर उठने के लिए प्रयत्नशील है, वह अन्तरात्मा है और जो आत्मा मोह और क्षोभ से पूरी तरह रहित होकर वीतराग अवस्था को प्राप्त है वह परमात्मा है। बहिरात्मा के लक्षणों को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि जो आत्मा स्व-स्वरूप का विस्मरण करके शरीर आदि नोकर्म, ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म, राग-द्वेष, मोह आदि भावकर्म और उनके विपाक रूप सुख-दुःख आदि अनुभूतियों में आत्मबुद्धि या ममत्वबुद्धि रखती है और परिणामस्वरूप अपने आपको पुरुष, स्त्री, नपुंसक अथवा सुखी-दुःखी आदि मानती है, वह बहिरात्मा है। जो सदैव ही मोह और लोभ से युक्त रहती है - उसे ही बहिरात्मा कहा जा सकता है। आगे आनन्दघनजी अन्तरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जो आत्मा शरीर आदि बाह्य पदार्थों के प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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