SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 320 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री का अनुभव करते हैं। आप उनसे हाथी, हार, आदि क्यों नहीं मांग लेते।" राजा ने कहा- "हे मृगाक्षी! पिताजी द्वारा दी गई उन वस्तुओं को उनसे माँगना उचित नहीं है।" रानी ने कहा- “आप उनके बदले इन्हें दूसरे हाथी आदि दे दीजिए।" रानी की बात सुनकर राजा ने हल्ल-विहल्ल को बुलाकर कहा- “हे भाइयों! राज्य में अन्य बहुत से हाथी, घोड़े एवं रत्न, आदि हैं, अतः इनके बदले तुम श्रेष्ठ हस्ति तथा हार हमें दे दो।" तब, “आपकी इस बात पर हम विचार करेंगे"ऐसा कहकर वे दोनों हाथी पर बैठकर चेटक राजा (मामा) के पास चले गए। अशोकचन्द्र ने चेटक मामा से दूत के द्वारा भाइयों को शीघ्र भेजने का निवेदन किया। जब चेटक राजा ने भाइयों को नहीं भेजा, तब अशोकचन्द्र ने चेटक राजा पर चढ़ाई कर दी। युद्ध के प्रारम्भ में ही चेटक राजा ने अशोकचन्द्र (कुणिक) के काल आदि दस सौतेले भाइयों को दस दिन में मार दिया। ग्यारहवें दिन 'अब मेरी बारी है'- ऐसा जानकर अशोकचन्द्र ने अट्ठम-तप की आराधना की। तप द्वारा देवता को प्रसन्न कर उसने देवता से चेटक राजा को मारने के लिए कहा। देव ने कहा- "चेटक राजा सम्यग्दृष्टि श्रावक है, उन्हें मारने के बजाय, मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूँ।" इस तरह युद्ध में अनेक सैनिक मारे गए, परन्तु ऊँचे किले में शोभित वह नगर किसी तरह से खण्डित नहीं हुआ। तब देव ने आकर राजा से कहा- “जब कुलबालक नामक साधु मागधिका वेश्या का सेवन करेगा, तब ही तुम वैशाली नगरी पर अधिकार कर पाओगे।" राजा ने मागधिका वेश्या को बुलाकर कहा- "हे भद्रे! तू किसी भी तरह से कुलबालक मुनि को यहाँ ले आ।" वेश्या ने अत्यन्त विनय से राजा की आज्ञा को स्वीकार कर लिया। वह वेश्या कपटी श्राविका बनकर मुनि को वन्दन कर कहने लगी- "हे मुनिवर! आप मेरे हाथों से भिक्षा ग्रहणकर मुझे कृतार्थ करें।" इस प्रकार उसने मुनि को दूषित लड्डू दिए, जिससे वे मुनि अतिसार-रोग से ग्रस्त हो गए। वेश्या द्वारा सेवा करने से जब मुनि स्वस्थ बनें, तब वेश्या ने मुनि से कहा- "हे नाथ! हम जब तक जिएं, तब तक पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन करें।" इस तरह उसकी कोमल वाणी के प्रभाव से मुनि ने संयम-जीवन का त्याग कर दिया। एक दिन वेश्या उसे अपने साथ लेकर राजा के पास पहुंची और कहने लगी- "हे देव! यह कुलबालक मेरा प्राणनाथ है। इसके द्वारा जो कार्य करवाना है, उसकी आज्ञा दीजिए।" राजा ने कहा- "हे भद्र! तू ऐसा कार्य कर जिससे यह नगर नष्ट हो जाए।" तब मुनि त्रिदण्डी का रूप धारण कर नगर में गया और मुनि सुव्रतस्वामी का स्तूप देखकर नगरवासियों से कहने लगा- “यदि नगरी की सुरक्षा चाहते हो, तो इस स्तूप को हटा दो।" लोगों ने परस्पर विचार किया और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy