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________________ कुलबालक मुनि की कथा संवेगरंगशाला में साधु के विशेष लिंग की चर्चा करते हुए साधु को निरतिचारपूर्वक जीवन व्यतीत करनेवाला, संयम में स्थिरता रखनेवाला - इत्यादि गुणों से युक्त होना चाहिए - ऐसा वर्णन है। इस सन्दर्भ में इसमें कुलबालक मुनि की कथा उपलब्ध होती है। 751 आचार्य संगमसिंह के अनेक शिष्य थे। उनमें से एक शिष्य प्रकृति से उद्दण्ड था। वह अपनी कल्पना से दुष्कर तपस्या करता, किन्तु गुरु की आज्ञानुसार चारित्र - धर्म का पालन नहीं करता था, इसलिए आचार्य श्री उसे प्रेरणा करते - इस तरह तू शास्त्र - विरूद्ध कष्ट सहन करके आत्मा को क्यों निरर्थक संताप दे रहा है? जिन - आज्ञा के पालन में ही चारित्र है । इस प्रकार बार-बार शिक्षा देने से वह गुरु के प्रति उग्र वैरभाव रखने लगा। किसी एक दिन आचार्यश्री उसे साथ लेकर निषेधिका को वन्दन करने के लिए एक पर्वत पर चढ़े। वहाँ से वन्दन कर जब उतरने लगे, तब उस दुर्विनीत शिष्य ने विचार किया कि मुझे यह अच्छा मौका मिला है। मैं इन आचार्य को यहीं मार दूँ। ऐसा सोचकर उसने पीछे से एक पत्थर की शिला को धक्का देकर गिरा दिया। संयोगवश गुरु ने पीछे देखा • और शीघ्र वहाँ से हट गए और उससे कहने लगे- “हे गुरु के शत्रु ! तू क्यों यह महापाप करता है। इस पाप निवृत्ति के कारण तू निश्चय ही स्त्री के निमित्त से चारित्र का त्याग करेगा।" ऐसा श्राप देकर आचार्यश्री वापस आ गए। जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 319 आचार्यश्री के वचन को असत्य करने के लिए वह कुशिष्य अधिक उग्र तप करने लगा। उसके तप के प्रभाव से देवी प्रसन्न हुई एवं वर्षाकाल में नदी के प्रवाह में मुनि बह न जाए, इसलिए उसने नदी का प्रवाह दूसरी दिशा में बदल दिया। लोगों ने भी उसके गुणों के अनुरूप उसका नाम कुलबालक रख दिया। इधर चम्पानगरी में श्रेणिक नाम का राजा रहता था। उसने अपने बड़े पुत्र को चम्पानगरी का राज्य दिया तथा छोटे पुत्र हल्ल और विहल्ल को श्रेष्ठ हाथी और हार प्रदान किए एवं अभयकुमार ने भी उन्हीं दोनों को रेशमी वस्त्र और कुण्डल दिए। इससे वे दोनों छोटे भाई उन वस्त्रों को धारणकर, हार एवं कुण्डलों से सुशोभित होकर हाथी पर बैठकर नगर में क्रीड़ा करते थे। देव के समान उनको क्रीड़ा करते देखकर ईर्ष्या से रानी ने अशोकचन्द्र (कुणिक) राजा से कहा- "हे देव! राजलक्ष्मी तो आपके भाइयों को ही मिली है, जिससे वे आनन्द 751 संवेगरंगशाला, गाथा १२३० - १३२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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