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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 177 जिसका विवरण संवेगरंगशाला में नहीं है। इन विभिन्नताओं के अतिरिक्त मरण के प्रकारों के सम्बन्ध में कोई अन्य अन्तर परिलक्षित नहीं होता है । संवेगरंगशाला में वर्णित मरण के इन सत्तरह प्रकारों का विवेचन निम्न रूप में उपलब्ध होता है : 9. अवीचिमरण :- संवेगरंगशाला के अनुसार प्रतिसमय आयुष्य-कर्म का क्षय होना ही अवीचिमरण है। 347 समवायांगसूत्र के अनुसार वीचि, अर्थात् जल को तरंग। जिस प्रकार जल में एक तरंग के पश्चात् दूसरो तरंग उठती है, उसी प्रकार आयुष्यकर्म के दलिक प्रतिसमय उदय में आकर नष्ट होते रहते हैं। आयुष्यकर्म के दलिकों का क्षय होना ही मरण है, अतः प्रतिसमय होनेवाले इस मरण को अवीचिमरण कहते हैं। पुनः, जिस मरण में कोई विच्छेद या व्यवधान न हो, उसे अवीचिमरण कहते हैं। 348 “भगवती आराधना के अनुसार आयुष्य के अनुभव (उदय) को जीवन कहते हैं। इसी प्रकार आयुष्य के क्षीण होने या समाप्त होने को मरण कहते हैं। आयुष्य का उदय तथा क्षय प्रत्येक क्षण होता रहता है, अतः प्रत्येक क्षण होने वाले मरण को ही अवीचिमरण कहा जाता है। 2349 इस तरह हम देखते हैं कि तीनों ही ग्रन्थों में अवीचिमरण का अर्थ प्रतिक्षण होनेवाला मरण ही कहा गया है, अतः तीनों ग्रन्थों में अवीचिमरण की अवधारणा समान है। 350 २. अवधिमरण :- नरकादि गतियों में उत्पन्न होने के निमित्त भूत आयुष्यकर्म के दलिकों को भोगकर वर्तमान में मृत्यु को प्राप्त होता है तथा पुनः उसी प्रकार के कर्मदलिकों का बंध कर उनको भी उसी प्रकार भोगकर मरता है, ऐसे मरण को संवेगरंगशाला में अवधिमरण कहा गया है। समवायांगसूत्र के अनुसार अवधि मर्यादा को कहते हैं। यदि कोई जीव वर्तमान में जिस आयुष्यकर्म का क्षय करके मरण को प्राप्त होता है, यदि वह आगामी भव हेतु उसी आयुष्यकर्म को बाँधकर मरण को प्राप्त हो, अर्थात् आगामी भव में उन्हीं कर्म - दलिकों को भोगकर मरे, तो ऐसे जीव के वर्तमान भव के मरण को अवधिमरण कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि जो जीव एक जीवन में आयुष्यकर्म 347 संवेगरंगशाला, गाथा ३४४७. 348 समवायांगसूत्र १७ /१२१. 349 भगवती आराधना, पृ. ५२ (हिन्दी टीका ) - 350 संवेगरंगशाला, गाथा ३४४८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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