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________________ 214] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भेदसंकल्पनामुक्त एकस्वभाव आहितः। अन्वयद्रव्याथिके चानेकद्रव्यस्वभावकः // 3 // भावार्थ:-भेदकी कल्पनासे रहित द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे द्रव्यका एकस्वभाव कहा गया है और अन्वय द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे अनेक स्वभाव माने गये हैं // 3 // व्याख्या / भेदकलनारहितशुद्धद्रव्यार्थिकनये भेदकल्पनामुक्त एकस्वमावः कथितः 5 अन्वयद्रव्यापिकनयेऽनेकद्रष्यस्वभावोऽनेकस्वभावः 6 इत्यर्थः / कालान्वये सताग्राहको देशान्वये चान्वयग्राहको नयः प्रवर्तत इति // 3 // व्याख्यार्थ:-भेदकी कल्पनासे रहित शुद्ध ( सत्तामात्रके ग्राहक ) द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे द्रव्यका एक स्वभाव (5) कहा गया है तथा भेदकल्पनासहित अन्वय द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षामें द्रव्यका अनेक स्वभाव (6) भी कहा गया है। तात्पर्य यह कि नहीं पदार्थमें कालका अन्वय होता है वहां तो सत्ताका ग्राहक द्रव्यार्थिक नय प्रवृत्त होता है और देशके अन्वयमें अन्वयग्राहक द्रव्यार्थिक नय प्रवृत्त होता है // 3 // सद्भुतव्यवहाराच्च गुणगुण्यादिभेदता। भेदकल्पनराहित्ये तस्याभेदः प्रकीर्तितः // 4 // भावार्थ:-सद्भूत व्यवहार नयसे गुण गुणी आदिके भेदस्वभावता होती है और भेदकल्पनाकी शून्यतादशामें गुणादिका अभेद कहा गया है // 4 // ___ व्याख्या / सद्भूतव्यवहाराच्च सद्भूतव्यवहारनयाद् गुणगुण्यादिभेदता / गुणगुणिनोः, पर्यायपर्यायिनो, कारककारकिनोभेदस्वमावः सप्तमः / भेदकल्पनराहित्ये भेदकल्पनारहितशुद्धद्रव्याथिकनयमतेऽभेदः स्वमावः प्रकीतितः / / यत्र कल्प्यमानस्यान्तर्निगीर्णत्वेन ग्रहस्तत्र कस्वभावो यथा घटोऽयमिति, यत्र विषयविषयिगोवविक्त्येन ग्रहस्तत्राभेदस्वभावो यथा नीलो घट इति / सारोपाध्यवसानयोनिरूडत्वार्थमयं प्रकारभेदः / प्रयोजनवत्यो तु ते यदृच्छानिमित्तकत्वे स्वभावभेदसाधके / इति परमार्थः // 4 // व्याख्यार्थः-सद्भूतव्यवहार नयसे गुण गुणी, पर्याय पर्यायी और कारक कारकवान्का भेद स्वभाव है और यह भेद स्वभाव सप्तम है / 7 / और भेदकल्पनारहित शुद्ध द्रव्यार्थिक नयके मतमें तो अभेद स्वभाव कहा गया है / 8 / जहाँपर कल्पनीय पदार्थ निगीर्णस्वभाव है अर्थात् जहां कल्प्यमान वस्तु नहीं भासता है, वहाँपर एक स्वभाव अर्थात् अभेद स्वभाव है। जैसे "अयं घटः" यह घड़ा है" यहां यह नहीं जनाया गया कि यह घट नील है वा पीत है; इसलिये घटपदसे हो उसका रूप विषय निगल लिया गया है / और जहांपर विषय और विषयीका पृथक् 2 भान ( ग्रहण ) होता है, वहांपर अभेद स्वभाव है / जैसे-'नीलः घटः" "नीला घट" यहाँपर सारोपा तथा साध्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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