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________________ पुरा पार्थसिद्धयुपाय १०३ हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः । कात्स्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ।। ४० निरतः कात्स्न्यं निवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूतोऽयम् । या त्वेकदेशविर तिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥ ४१ आत्मपरिणामहिसन हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥ ४२ यत्खलु कषाययोगात् प्राणानां द्रव्य भावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ।। ४३ अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ युक्ताचरणस्य सतो रागाद्या वेशमन्तरेणापि न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव || ४५ व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । त्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥ ४६ यस्मात् सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥ ४७ हिंसायामविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा । तस्मात् प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ।। ४८ सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसः । हिमायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ॥। ४९ समस्त सावद्ययोगके परिहारसे उत्पन्न होता है, सकल कषायोंसे रहित होनेपर निर्मलता धारण करता है और सर्व पदार्थों में उदासीन रूप है, अत: वह आत्म-स्वरूप है ॥ ३९ ॥ यतः हिंसासे, असत्यवचनसे, चोरीसे, कुशीलसे और परिग्रहसे सर्वदेश विरति होनेपर सकल चारित्र और एकदेश विरति होनेपर देशचारित्र होता हैं, अतः चारित्र दो प्रकारका हैं ||४०|| जो हिंसादि सर्व पापोंकी पूर्ण निवृत्ति में निरत हैं, वह समयसारभूत साधु कहलाता हैं । और जो उक्त पापोंकी एकदेश निवृत्ति में निरत है, वह उपासक या श्रावक कहलाता हैं ॥४१ । आत्माके शुद्ध परिणामोंके घात करनेके कारण होनेसे सभी पाप हिंसारूप ही हैं । किन्तु असत्यवचनादिक पापोंके भेद आचार्योंने केवल शिष्यों के समझाने के लिए ही कहे हैं । ४२ ।' जो कषायके योगसे द्रव्य और भावरूप प्राणोंका घात किया जाता हैं, वह निश्चितरूपसे हिंसा हैं । ४३ ।। रागादि भावोंका उत्पन्न नहीं होना ही अहिंसा हैं और उनका उत्पन्न होना ही हिंसा है, इतना ही जैन आगमका सार है ।। ४४ । । प्रमाद-रहित होकर सावधानीपूर्वक योग्य आचरण करनेवाले सन्तपुरुके रागादि भावोंके आवेशके विना केवल प्राण धात हो जानेसे वह कदाचित् भी हिंसा नहीं कहलाती हैं ।। ४५ ।। किन्तु प्रमाद - अवस्थामें रागादि भावोंके आदेश से अयत्माचारी प्रवृत्ति होनेपर जीव मरे या न मरे, किन्तु हिंसा निश्चयसे आगे ही दौडती हैं ॥ ४६ ॥ क्योंकि प्रमाद - परिणत जीव कषाय सहित होकर पहले अपने द्वारा अपना ही घात करता हैं भले ही पीछे अन्य प्राणियोंकी हिंसा हो, या न हो ||४७ ॥ हिंसामें अविरत भाव हिंसा हैं और हिंसारूप परिणमन होना भी हिंसा हैं । इसलिए प्रमाद युक्त योग होने पर नित्य ही प्राणघातका सद्भाव है । अर्थात् जब तक जीवके प्रमत्त योग विद्यमान है, तब तक हिंसक ही है ॥४८॥ यद्यपि निश्चयसे जीवके परवस्तुनिमित्तक सूक्ष्म भी हिंसा नहीं होती हैं, तथापि परिणामोंकी विशुद्धिके लिए हिंसा के आधारभूत असत्य भाषण, परिग्रह-संक्षरण आदि पापोंकी निवृत्ति करना चाहिए ||४९ ॥ जो पुरुष वस्तुके यथार्थस्वरूप निश्चयको नहीं जानता हुआ निश्चयसे उसे ही अङ्गीकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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