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________________ १०२ श्रावकाचार-संग्रह इत्याश्रितसम्यक्त्वैः सम्यग्ज्ञानं निरूप्य यत्नेन । आम्नाययुक्तियोगः समुपास्यं नित्यमात्महितः।।३१ पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य । लक्षणभेदेन यतो नानात्वं सम्भवत्यनयोः ।। ३२ सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः । ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात्। ३३ कारणकायविधानं समकालं जायमानयोरपि हि। दोप-प्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम्॥३४ कर्तव्योऽध्यवसायः सबनेकान्तात्मकेष तत्त्वेषु । संशयविपर्ययानध्यवसायविविक्तमत्मरूपं तत् ।।३५ ग्रन्थार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च । बहुमानेन समन्वितमनिन्हवं ज्ञानमाराध्यम् ।। ३६ विगलितदर्शनमोहैः समञ्जसज्ञानविदिततत्त्वार्थ:नित्यमपिनि प्रकम्पैःसम्यक्चारित्रमालम्ब्यम्।।३७ न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वक लभते । ज्ञानान्त मुक्तं चारित्राराधानं तस्मात् ।। ३८ चारित्रं भवति यत: समस्तसावद्ययोगपीरहरणात । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥ ३९ इस प्रकार जिन्होंने सम्यक्त्वका आश्रय लिया है, और जो आत्महितके इच्छुक हैं,उन पुरुषोंको आगमकी आम्नाय और प्रमाण नयरूप युक्तिके योगसे प्रयत्नके साथ वस्तुस्वरूपका विचारकर नित्य ही सम्यग्ज्ञानकी उपासना करना चाहिए ॥३१॥सम्यग्दर्शनके साथही उत्पन्नहोनेवालेसम्यग्ज्ञानकीआराधना पृथक् रूपसे ही करना चाहिए, क्योंकि लक्षणके भेदसे इन दोनोंमें भिन्नता हैं ।।३२॥ जिनदेवने सम्यक्त्वको कारण और सम्यग्ज्ञानको कार्य कहा है । अतः सम्यक्त्वके अनन्तर ज्ञानकी आराधना इष्ट हैं। ३३ ।। एक साथ उत्पन्न होनेवाले भी इस सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें दीपक और प्रकाशके समान कारण और कार्यका विधान भले प्रकार घटित होता हैं ।।३४।।सद्-रूप अनेक धर्मात्मक तत्त्वोंमें संशय,विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित अध्यवसाय अर्थात् जाननेका प्रयत्न करनाचाहिए,क्योंकियह सम्यग्ज्ञान भात्माका स्वरूप है ।।३५।। मूलग्रन्थ,उसका अर्थ और इन दोनोंकी पूर्ण शुद्धिके साथ योग्यकालमें विनय,धारणा और बहुमान के साथ निण्हव-रहित होकरसम्यग्ज्ञानकी आराधनाकरना चाहिए ॥३६।। भावार्थ-जैसे सम्यग्दर्शनकी आराधनाके निःशङ्कित आदि आठ अङग बतलाये गये हैं, उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानको आराधना करनेके भी ये आठ अङग बतलाये गये हैं.१. ग्रन्थाचार, २. अर्थाचार, ३. उभयाचार, ४. कालाचार, ५. विनयाचार, ६. उपधानाचार, ७. बहुमानाचार और ८. र। मलग्रन्थके शब्दोंका शद्ध उच्चारण एवं पठन-पाठन करना ग्रन्थाचार हैं। मलग्रन्थके अर्थका शुद्ध अवधारण करना अर्थाचार हैं। मूल और उसका अर्थ, इन दोनोंका शुद्ध पठन-पाठन करना उभयाचार हैं। दिग्दाह,उल्कापात, सूर्य-चन्द्रग्रहण, सन्ध्याकाल आदि अस्वाध्यायके कालको छोडकर स्वाध्यायके योग्य समयमें शास्त्रोंका पठन-पाठन करना कालाचार हैं । द्रव्य क्षेत्र आदिकी शद्धिपूर्वक विनयसे शास्त्राभ्यास करना विनयाचार है । शास्त्रके मूल एवं अर्थका बार-बार स्मरण करना और उसे विस्मरण नहीं होने देना उपधानाचार हैं। ज्ञानके उपकरण एवं गरुजनोंका विनय करना बहुमानाचार हैं। जिस शास्त्र या गुरुसे ज्ञान प्राप्त किया हो, उसका नाम न छिपाना अनिन्हवाचार हैं । सम्यग्ज्ञानकी आराधनाके लिए इन आठ अङगोंका पालन आवश्यक हैं। जिनका दर्शनमोहकर्म दूर हो गया है,जिन्होंने सम्यग्ज्ञानके द्वारा तत्त्वार्थको भली-भाँतिसे जान लिया है और जो सदा ही निष्कम्प चित्त रहते है,ऐसे सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंको सम्यक् चारित्र धारण करना चाहिए ॥३७।। यतः अज्ञानपूर्वक धारण किया गया चारित्र सम्यक् नाम नहीं पाता है,अतः सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके पश्चात् चारित्रका आराधन करना कहा गया है।।३८।यतः चारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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