SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ ] अष्टसहस्री [ कारिका ७ निवारयितुमशक्तेः । अथ वचनाधिक्यदोषोद्भावनादेव प्रतिवादिनो जयसिद्धौ साधनाभासोद्धावनमनर्थकमिति मन्यसे, नन्वेवं साधनाभासानुद्भावनात्तस्य पराजयसिद्धौ वचनाधिक्योद्भावनं कथं जयाय प्रकल्प्येत ? यदि पुनः साधनाभासं वचनाधिक्यं चोद्धावयन्प्रतिवादी जयतीति मतं तदास्य महती 4द्विष्टकामिता, साधर्म्यवचनादेवार्थगतौ वैधर्म्यवचनमनर्थ'कत्वाद्विष्ट्वा साधनाभासोद्भावनादेव परस्य न्यक्कारसिद्धौ तद्वचनाधिक्योद्भावनस्यानर्थकस्यापि कामितत्वात् । अथ न वचनाधिक्यमात्रं द्विष्यते', अर्थादापन्नस्य1 12स्वशब्देनाभिधा __ बौद्ध-पुनः वचनाधिक्य (उदाहरण, उपनय, निगमनादि) दोष का ज्ञान होने से हम प्रतिवादी दूषणज्ञ तो हैं ही। जैन-यदि आप ऐसा कहते हैं तब तो साधनाभास का अज्ञान होने से आप अदूषणज्ञ भी हैं इसलिये आप एकान्ततः वादी को जीत नहीं सकेंगे, प्रत्युत साधनाभासरूप दोष का उद्भावन न करनेरूप पराजय को ही प्राप्त कर लेंगे यानी आपके ही पराजय का निवारण करना अशक्य हो जावेगा। बौद्ध-वादी के वचनाधिक्य दोषों के उद्भावन से ही हम प्रतिवादी का विजय सिद्ध है । पुनः साधनाभास का प्रगट करना व्यर्थ ही है। जैन-यदि आप ऐसा कहते हैं तब तो इसी प्रकार से साधनाभास दोष को न प्रकट करने से ही आप प्रतिवादी का पराजय सिद्ध हो जावेगा । पुनः वचनाधिक्य का प्रगट करना ही जय के लिये कसे माना जा सकेगा? बौद्ध-साधनाभास और वचनाधिक्य दोनों ही दोषों को प्रकट करते हुये हम प्रतिवादी जय को प्राप्त करते हैं। जैन-यदि आप ऐसा कहें तब तो आप महान् द्वेषी सिद्ध होते हैं क्योंकि अन्वयवचन से ही साध्य का ज्ञान हो जाने पर व्यतिरेकवचन का प्रयोग व्यर्थ है इस प्रकार से जैनों से द्वेष करके सा को प्रगट करने से ही हम वादी का पराजय सिद्ध हो जाने पर पुनः हमारे वचनाधिक्य दोष का उद्भावन करना व्यर्थ होते हुए भी आप उसको चाहते हैं। बौद्ध-हम वचनाधिक्यमात्र से ही द्वेष नहीं मानते हैं किन्तु जिसका अर्थापत्ति से स्वयं बोध हो 1 नन्विदमिति पा० । (दि० प्र०) जैनो ब्रूते । (दि० प्र०) 2 प्रतिवादिनः। 3 तदा तस्येति पाठः । (दि० प्र०) 4 द्वेषविषयभूतं कामयते इत्येवंशीलः। तस्य भावो द्विष्टकामिता। 5 अर्थस्य निश्चितौ सत्याम् । (दि० प्र०) 6 द्विष्टम् इति पा०। (दि० प्र०) 7 द्वेषविषयं कृत्वा । 8 वादिनः। 9 न्यक्कारः पराजयः। 10 द्विष्यते । साधनाभासोद्भावनादेव वचनाधिक्योभावनस्यार्थादापन्नत्वाभावान्न तद्विष्यते साधर्म्यवचने वैधर्म्यवचनस्यार्थादापन्नत्वात्तदेव द्विष्यते इति भावः । (दि० प्र०) 11 साधर्म्यवचनादेवार्थगतौ अर्थादापन्न (स्वयमेव लब्धम्) वैधर्म्यवचनं, तस्य । 12 पुनस्तस्याभिधानं द्विष्टम् । तत्त्वात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy